स्त्री का मन में खयाल आते ही उनकी सूरत में ममता करुणा दया सेवा परोपकार त्याग की भावना दिखने लगती है। जब तक वह प्रकृति प्रदत गुणों के रूप में अपने को सहेज कर रखती है तभी वह इतनी महान दिखती है। जब वो बाहर की दुनियां में पुरुषों से बराबरी हासिल कर लेती है और सत्ता उसके हाथों में आ जाए तब वो प्रायः बंगाल की ममता सी हो जाती है।
Sanjay Sinha उवाच
हूं तैयार मैं...
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मेरी कुछ महिला परिजनों की कमाल की ख्वाहिश है। मुझे खाना बनाते देख कर कुछ ने लिख भेजा है कि वो किडनैप करके मुझे अपने घर ले जाना चाहती हैं और दो-चार दिन खाना बनवाना चाहती हैं। मैं खाना बनाऊंगा, वो खाएंगी।
बात मजाक में कही गई है। इसे गंभीरता से न लें। मुझे लिखने वाली महिला परिजनों में से जिनकी भी ये तमन्ना है, वो सीधे मुझे न्योता दे दें कि संजय सिन्हा दो-चार दिनों के लिए आकर आप मेरे घर खाना बनाएं, हमें खिलाएं। यकीन मानिए, मैं खुशी-खुशी ऐसा कर दूंगा।
मैं सोचता हूं कि कोई मुझे किडनैप करके अपने घऱ ले जाए और फिर कहे कि खाना बनाइए संजय जी, तो इस मंशा के पीछे भाव क्या है?
असल में मुझे ठीक से अंदाज़ा नहीं है कि सृष्टि के सामाजिक होने की कड़ी में कब ये तय हुआ होगा कि महिलाएं खाना बनाएंगी। पर जब भी ये हुआ, उस भाव में एक महिला के लिए मां बनना सबसे अहम घटना रही होगी। क्योंकि महिला मां बनती हैं, इसलिए कभी न कभी ऐसा हुआ ही होगा कि वो बाहर नहीं जा पाएगी, पुरुष बाहर जाएगा। वो भोजन की व्यवस्था करेगा, महिला उसे भोज्य बनाएंगी। मेरी समझ में सिवाय मातृत्व के इस कार्य व्यवस्था के और कोई कारण नहीं रहा होगा।
धीरे-धीरे यही नियम बन गया। स्त्री घर में, पुरुष बाहर। लेकिन ये भी तय है कि कभी न कभी महिलाओं को ये बात खटकी ज़रूर होगी कि ऐसा क्यों? क्यों पुरुष बाहर का संसार देखेगा, महिला भीतर सिमट कर रह जाएगी?
समय के साथ इस विचार में बदलाव आया है, लेकिन अभी भी पुरुष जब रसोई की ओर कभी मुड़ता है तो वो एक घटना होती है, सामान्य बात नहीं। मैंने ऐसा बहुत कम देखा है कि किसी दांपत्य रिश्ते में पूरी ज़िंदगी पुरुष रसोई में रहे हों, महिला ने सिर्फ भोजन की चाहत भऱ रखी हो। महिला है और वो रसोई में नहीं गई, पुरुष ने ही अकेले पूरी रसोई पूरी ज़िंदगी संभाली हो।
ऐसे में क्रांति का आगाज़ इसी रुप में होना है कि एक दिन महिला पुरुष को मजबूर कर बैठेगी कि आज से रसोई तुम्हारी। तुम संभालो रसोई, मैं बैठ कर खाऊंगी। सोफा पर बैठे, बैठे आवाज़ दूंगी कि संजू पानी लाना। संजू चाय बनाना। संजू आज भरवा करैला बनाना, पुलाव पकाना।
क्योंकि उसके मन में क्रांति का विस्फोट चल रहा है, लगातार पर वो बाहर नहीं आ पा रहा है, इसलिए ठिठोली में ही सही, वो कह पाती है कि एकदिन संजय तुन्हारा किडनैप करके घर ले आऊंगी, मैं बैठूंगी, तुम खाना बनाना।
मेरे लिए ये सोच ही समाज की सही सोच होगी।
इस दुनिया में चल रहा संघर्ष मानव उत्थान का संघर्ष है। ये संघर्ष उस दिन संपूर्ण होगा, जिस दिन मनुष्य करुणा को जीना सीख लेगा। अंतिम लक्ष्य ही करुणा है। और समाज करुणाप्रिय हो, इसके लिए सत्ता महिला को सौंपनी होगी। एक बार उनसे पूछना होगा कि उनकी चाहत क्या है?
संसार की किसी एक महिला के मन में अगर ये पल रहा है कि वो किसी पुरुष का अपहरण करके अपने घर ले जाएगी और उससे खाना बनवा कर खाएगी तो ये सोचने की बात है।
नोट-जो महिला मन को नहीं समझते (जिन्होंने नहीं समझा), वो करुणा को भी नहीं समझ सकते हैं। जो करुणा को नहीं समझते वो कुछ भी नहीं समझ सकते हैं। न देश को, न राष्ट्र को, न समाज को।
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