अजब भयो रामा गजब भयो रे वोटर लिस्ट पे डकैती भयो रे । खैर ऐसी शिकायतें हर चुनाव में बहुतों की होती है। पता तब चलता है जब किसी वीवीआईपी के साथ ऐसा हो जाता है। वैसे भी फलाने जी को जब देना ही नहीं था तो किसी को भी देते तो क्या फर्क पड़ जाता, अब कमसे कम नारी उत्पीड़क को वोट देने के कलंक से तो बच ही जायेंगे।
Sanjay Sinha उवाच
मेरी पत्नी का क्रोध
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अगर आठवां आसमान होता तो मेरी पत्नी का गुस्सा आठवें आसमान पर होता। अभी सातवें आसमान पर है। पहले ही सफाई दे दूं कि गुस्से की वजह मैं नहीं हूं।
फिलहाल वो गुड़गांव में अपनी छोटी बहन के साथ है। वहां जाने के बाद किसी चर्चा में उसे याद आया कि दिल्ली में 25 मई को मतदान है।
मेरी पत्नी दिल्ली में वोटर है।
संजय सिन्हा ने अपनी पूरी जवानी दिल्ली में गुजार दी, लेकिन कभी वोट देने नहीं गए। अड़े रहे कि पत्रकार हूं, वोट नहीं दूंगा। दुनिया के लिए भले वोट गुप्त हो, लेकिन अपने मन में पार्टी विशेष के लिए लगाव तो हो ही जाएगा।
और वो पत्रकार पत्रकार ही क्या, जिसके मन में किसी राजनीतिक दल के लिए लगाव पैदा हो जाए।
अदालत का एक अघोषित नियम है। वकील की किसी जज से रिश्तेदारी है या सीधे जुड़ाव हो तो वो अदालत को इसकी पूर्व सूचना देते हैं। उस जज की अदालत में उस वकील का केस नहीं चलता है।
क्यों?
मन के किसी छोर पर भेद नहीं उपजे इसीलिए।
अदालत के इस नियम के विषय में तो मुझे जबलपुर हाईकोर्ट जाने के बाद पता चला। लेकिन ये मेरा बनाया नियम था कि जो दुनिया को प्रभावित कर सकते हैं, उन्हें निष्पक्ष होना चाहिए। जैसे मैं मानता हूं कि अगर आप प्रधान मंत्री बन गए तो आपको किसी पार्टी विशेष के लिए प्रचार करने का हक नहीं होना चाहिए।
प्रधान मंत्री देश के होते हैं, पार्टी विशेष के नहीं। भले चुनाव में आप अपने दल के प्रचार के लिए निकलते हैं, पर प्रोटोकॉल तो पीएम का लागू होता है आप पर।
देख लीजिएगा एक दिन लोकतंत्र में ये सब नियम लागू होकर रहेंगे।
ओह! मैं भी कहां से कहां पहुंच गया। आज तो बात मेरी पत्नी के गुस्से की है। मेरी पत्नी ने बहुत पहले पत्रकारिता को अलविदा कर दिया था।
अब बात फिर से दिल्ली में मतदान की। मेरी पत्नी के गुस्से की।
गुड़गांव जा कर पता नहीं कैसे उसने ऑनलाइन चेक किया तो पता चला कि उसका नाम ही वोटर लिस्ट में नहीं है।
ऐसा कैसे हो गया? वो पैदा दिल्ली में हुई। जवान दिल्ली में हुई। वोटर दिल्ली में बनी। फिर उसका नाम अचानक गायब कैसे? उसने तो लिख कर नहीं दिया कि उसका नाम काट दिया जाए, दिल्ली वोटर लिस्ट से।
उसने मुझे फोन किया, “संजय, इस बार मेरा नाम वोटर लिस्ट में क्यों नहीं है?”
“क्यों नहीं है? मैं क्या जानूं?”
“वाह। बाहर के सारे काम तुम देखते हो। बैंक, प्रोपर्टी, गाड़ी, टैक्स तो वोटर लिस्ट में नाम है या नहीं, ये कौन देखेगा?”
मैं क्या बोलता? बोलने को कुछ न हो तो चुप्पी ही हथियार है।
मैं चुप था।
वो गुस्से में थी। ऐसे कैसे मेरा नाम वो काट सकते हैं? तुम जबलपुर गए। वहां वोटर तुम हो। मैं तो यहीं वोटर हूं। मेरे पास वोटर कार्ड भी है। फिर नाम क्यों नहीं?
मैंने कहा कि पता लगाऊंगा कि नाम तुम्हारा नाम कैसे कटा? और ऐसा थोड़े न है कि सिर्फ तुम्हारा ही नाम कटा होगा, कई लोगों के नाम कटे होंगे।
“बिल्कुल ऐसा हुआ होगा। लेकिन हुआ क्यों? अब आखिरी समय में पता चल रहा है कि नाम नहीं है तो मैं वोट कैसे दूंगी?”
“देखो, ये सरकारी मामला है। सरकार के काम सरकार ही जाने। लेकिन नाम कटना नहीं चाहिए था।”
उसने बताया कि कुछ दिन पहले किसी की पोस्ट वो पढ़ रही थी कि जिस दिन गाजियाबाद में मतदान था, वहां कुछ वोटरों के नाम जानबूझ कर दूर के बूथ पर भेज दिए गए थे, जबकि बाकियों को घर के एकदम पास।
वहां वोटरों भेदभाव का आरोप लगया था। उन्होंने कहा था कि उनके ‘विचार’ से चुनाव कार्य संपन्न कराने वाले वाकिफ थे और जिन पर उन्हें संदेह था कि फलाने जी की पार्टी को वोट वो नहीं देंगे, उनका नाम घर से आधा किलोमीटर दूर के मतदान केंद्र में रखा गया था, बाकियों के नाम सोसाइटी कैंपस में। करीब ड़ेढ़ हज़ार लोग एक ही हाउसिंग सोसाइटी में रहते हैं, उसमें से चुन-चुन कर, पता लगा कर कुछ लोगों को दूर भेजा गया था। वोट न दो तो अधिक अच्छा। जिनके बारे में खुले में पता था कि वो फलाने जी प्रति लिए ‘मतांध’ हैं, वो तो उनके लिए लिफ्ट से उतरते ही वोट डालने की व्यवस्था थी।
पत्नी कह रही थी घर में ये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जो उपकरण (एलेक्सा, गूगल होम आदि) रखे हैं, वो हमारी बातें सुनते हैं। वो हमारे विचार जानते हैं। सारा कुछ उसी आधार पर तय हुआ है कि किसका नाम वोटर लिस्ट में रखा जाए, किसका उड़ा दिया जाए। वर्ना नाम कटने का कोई कारण ही नहीं है।
“हो सकता है, जिस दिन सर्वे वाले आए हों, तुम उस दिन वहां हो ही नही?”
“एक दिन आदमी घर पर न हो तो नाम कट जाएगा। जिनके नाम हैं, वो सारे लोग घर पर मिले थे? मेरा क्रेडिट कार्ड तो तब भी बन कर आ गया था, जब मैं महीने भर के लिए बाहर गई थी। वोटर लिस्ट में क्या अड़चन आ गई?”
“बात तो सही है।”
“बात गलत है संजय। ये षडयंत्र है। धोखा है। छल है। छल है। बेईमानी है। फ्रॉड है। लोकतंत्र का माखौल है।”
वो सात बार एक ही शब्द के पर्यायवाची बोलती गई। मैं समझ गया कि गुस्सा सातवें आसमान पर है।
मैंने उसे शांत करने की कोशिश की। लेकिन वो काली का रूप धारण किए हुए थी। सदा शांत पार्वती की बेटी ‘अशोक सुंदरी’ का जब राक्षस ने अपहरण किया था तो मां पार्वती क्रोध में आ गई थीं। उन्होंने काली का रूप धारण कर लिया था। राक्षस का तो उन्होंने जो किया था, वो उनकी लपलपाती जीभ देख कर आप आज भी समझ ही जाते हैं कि कैसे उन्होंने बेटी के किडनैपर के खून तक जमीन पर नहीं गिरने दीं, कही ये रक्तबीज न बन जाए।
काली का क्रोध इतना बढ़ गया था कि देव लोक में हड़कंप मच गया था। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों हिल गए थे। अंत में महेश (शिवजी) से ही सभी को अनुऱोध करना पड़ा था कि हे देव, आप ही कुछ कीजिए। अपनी पार्वती को समझाइए। मनाइए।उनके क्रोध से पूरा देवलोक हिल रहा है।
शिव रहे होंगे देवों के देव, लेकिन पत्नी से अधिक कोई होता है? अंत में बेचारे को बटुक (बाल रुप) धारण करना पड़ा था। काली रूप धारण की पत्नी के आगे जाकर पत्नी को मां कहना पड़ा था।
‘मां’ शब्द सुन कर काली का क्रोध थमा था। फिर वो पार्वती रूप में लौटी थीं।
मेरी पत्नी अभी गुड़गांव में है। मैं इधर बटुक रूप धारण किए बैठा हूं। जैसे ही वो आएगी, मैं समझाऊंगा कि मां, समय ही ऐसा आ गया है कि अब सरकारी तंत्र वोटों के अपहरणकर्ता बन चुके हैं। वो किसी न किसी बहाने उनके वोट गायब कर ही देंगे, जिनसे उनकी नौकरी पर आंच आ सकती है। तुम खुद एक पत्रकार रही हो। तुम्हारे विचार उन्हें पता हैं। क्या करोगी, मां। छोड़ो भी। आने दो उन्हीं को, जिनके आने के लिए वो मुहावरा बनाए बैठे हैं कि आएगा तो….
पार्वती तो मान गई थीं क्योंकि उन्होंने बेटी के अपहरणकर्ता को पकड़ लिया था। उसका खून वो पी गई थीं। मेरी शांत पत्नी इतनी आसानी से नहीं मानेगी।
देखना ये है कि वो करती क्या है? और करे क्यों नहीं? आखिर उसके वोट का अपहरण हुआ है।
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