परिवार का संतुलन मान सम्मान एकजुटता रिश्ते नातेदारी सब कुछ स्त्रियों पर ही निर्भर करता है। बड़े (खानदानी, संस्कारी)घर की बेटियां कभी परिवार को टूटने नहीं देती परंतु परिवार में एक भी कुलक्षणा नीच परिवार की बेटी आ जाए तो उस घर को टूटने से भगवान भी नहीं बचा सकते। यह तो स्वनुभ्व से कह रहा हूं।
Sanjay Sinha उवाच
दवाई पूरी खानी है (कहानी बड़प्पन की)
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बुखार होने पर डॉक्टर साहब ने दवा दी। साथ में हिदायत कि पांच दिन इसे खाना है। दवा लेने के दो दिनों बाद बुखार उतर गया था। जब बुखार ठीक हो गया तो फिर दवा क्यों खाता? मैंने दवाई छोड़ दी।
कुछ समय बाद फिर बुखार हुआ। मैं फिर डॉक्टर साहब के पास गया। उन्होंने पूछा कि संजय जी, आपने वो दवा पूरी खाई थी न?
पूरी क्यों खाता? दो ही दिन में ठीक हो गया था। फिर तीन दिन एक्सट्रा क्यों खाता?
डॉक्टर साहब सिर पकड़ कर बैठ गए। उन्होंने कहा कि (डांट कर) मैंने कहा था न कि पांच दिनों तक दवा खानी है। ये कोर्स है। एंटीायटिक का कोर्स पूरा नहीं करेंगे तो फायदा कम नुकसान अधिक होगा। मसला ठीक होना नहीं, जड़ से ठीक होना है।
डांट खाकर मैं समझ गया था कि एंटीबायटिक का मतलब क्या होता है, क्यों ठीक होने के बाद भी उसे खाने की ज़रूरत होती है।
कल मैंने कहा था मेरी पोस्ट पर मधुमख्खियों का हमला बहुत बड़ गया तो डॉक्टर Mamta Saini ने मेरे पास मेरी वो वो कहानियां भेजीं इस हिदायत के साथ कि कुछ दिन यही सब रिपीट कीजिए। आपके परिजन यही सुनना चाहते हैं। क्यों कुछ-कुछ लिख कर कटवा-कटवा कर अपना मुंह सुजवा रहे हैं? चुपचाप सरिता, मुक्ता बने रहिए।
अब मुश्किल ये है कि मैं कुछ भी (पुरानी कहानी भी) लिख रहा हूं तो बुखार बढ़ जा रहा है। दवाई तो मुझे पहले भी मिली है, लेकिन मैंने डोज पूरी नहीं ली। लेकिन अब वो गलती नहीं करूंगा। आप खुश रहिए, मैं आज ऐसा एक भी शब्द नहीं लिखने जा रहा कि कोई मुझे काटे।
सुनिए कहानी बड़प्पन की।
बड़प्पन क्या है?
स्कूल में जब प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े घर की बेटी’ पढ़ाई गई थी तब मैं समझ नहीं पाया था कि आखिर इसके पीछे मंशा क्या है।
दरअसल हमारे स्कूलों में ये बताने की प्रथा नहीं है कि जो पढ़ाया जा रहा है, वो क्यों पढ़ाया जा रहा है। बस इसलिए पढ़ाया जा रहा है ताकि हम उस पर पूछे जाने वाले सवालों के जवाब दे सकें, परीक्षा पास कर सकें।
लेकिन बड़ा होता गया, कहानी समझ में आती गई।
‘बड़े घर की बेटी’ की कहानी दुहराने की कोई ज़रूरत तो यहां नहीं है, क्योंकि मुझे परम यकीन है कि आप सबने ये वाली कहानी हर हाल में पढ़ी होगी। लेकिन जिसे दुहराने की ज़रूरत नहीं, उसे बिना दुहाराए अगर कोई आगे बढ़ ही जाए तो उसका नाम संजय सिन्हा नहीं होगा।
मैं पूरी कहानी की आत्मा सिर्फ चार पंक्तियों में समेटकर आगे बढ़ता हूं।
कहानी इतनी ही है कि एक सामान्य परिवार के बेटे की शादी एक संपन्न परिवार की बेटी से हो जाती है। हालांकि ये सामान्य परिवार किसी जमाने में जमींदारी के सुख से सराबोर था, लेकिन कोर्ट कचहरी और मुकदमों के चक्कर में सारी जमींदारी जाती रही थी और अब तो घर में दोनों टाइम दूध घी मक्खन तक के लाले पड़े थे।
एक दिन किन्ही परिस्थिति में एक अमीर घर की लड़की आनंदी की शादी उस सामान्य घर वाले लड़के श्रीकंठ सिंह से हो जाती है। आनंदी सुंदर थी, सुशील थी।
एक दिन आनंदी का देवर भाभी से मांस पकवाता है और भाभी सारा घी मांस पकाने में खर्च कर देती है। देवर कहता है कि दाल में घी क्यों नहीं है, तो भाभी कहती है कि जितना घी था सब मांस पकाने में खर्च हो गया। इसपर देवर बिगड़ जाता है और भाभी के मायके पर कुछ कटाक्ष कर देता है।
औरतें लात-घूसा-मार-बात सब सह लेती हैं, लेकिन मायके की बुराई नहीं सह पातीं। आनंदी भी बिदक जाती है और देवर उस पर चप्पल फेंकता है।
उसके बाद आनंदी अपने देवर की शिकायत अपने पति से करती है और पति अपने छोटे भाई से उखड़ जाता है। वो घर छोड़ने को तैयार हो जाता है, कहता है कि अपने भाई का अब मुंह नहीं देखेगा। बात पिता तक पहुंचती है। पिता बेटे को समझाते हैं कि औरतों के चक्कर में घर छोड़ना ठीक नहीं। पर आनंदी का पति नहीं मानता। प्रेम के आगोश में डूबा एक परिवार बिखराव के कगार पर पहुंच जाता है।
बात आनंदी तक पहुंचती है। उसे भी लगता है कि जरा सी बात पर घर टूट रहा है, जो उचित नहीं। गरमा-गरमी दोनों ओर से हुई थी, उसे इस बात का अहसास होता है। और फिर वो पति के सामने खुद ही अड़ जाती है कि जो हुआ सो हुआ पर घर नहीं टूटना चाहिए।
कहानी में लिखा नहीं है लेकिन इसे पढ़ते हुए एक लाइन मैंने खुद ही जोड़ ली थी कि ‘रिश्ते हैं सदा के लिए।’
लेखक ने तो लिखा है-
आनंदी के ऐसा कहने के बाद दोनों भाई गले मिल गए। आनंदी के ससुर 'बेनीमाधव सिंह' बाहर दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर आनंद से पुलकित हो गये। बोल उठे, “बड़े घर की बेटियॉँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं।”
गॉँव में जिसने यह सुना, उसी ने इन शब्दों में आनंदी की उदारता को सराहा, “बड़े घर की बेटियॉँ ऐसी ही होती हैं।”
हां, यही सच है। जो बड़े होते हैं, कुलीन होते हैं, संस्कारी होते हैं वो बिगड़ती हुई बात को बना लेते हैं।
जब ये कहानी मैं पढ़ता था तब तो नहीं, लेकिन बाद में दो बातें मेरे ज़ेहन में बैठ गई थीं।
पहली बात ये कि बड़े घर का होने का अर्थ बड़प्पन से है। दूसरी बात ये कि लेखक जब किसी को सुंदर कह रहा है तो तन की सुंदरता पर मन की सुंदरता हावी है। यानी जो मन से सुंदर होता है, वही तन से भी सुंदर लगता है। अपने इन दोनों ज्ञान को लेकर मैं बड़ा होता चला गया।
आज भी जब कोई लड़की मुझे सुंदर लगती है तो मैं मन ही मन मान बैठता हूं कि उसका मन भी सुंदर होगा। या फिर किसी का व्यवहार मुझे भाता है तो वो मुझे उसका चेहरा सुंदर लगने लगता है।
और मैं जिन महिलाओं को बिगड़ी बात बनाते देखता हूं उनके बारे में मेरे मन में धारणा बन जाती है कि वो 'बड़े घर की बेटी' है।
दरअसल रिश्तों को जोड़ने की कला ही आदमी को बड़ा या छोटा बनाता है।
संजय सिन्हा ने तमाम छोटे घर की महिलाओं को घर तोड़ते देखा है। बड़े घर की बेटियां सचमुच घर जोड़ती हैं।
मेरे प्यार परिजनों, मेरे ऐसा लिखने पर आप ये कतई न सोचें कि बात अमीरी और गरीबी की है। बात कुलीनता की है, संस्कारों की है।
स्वार्थ रूपी संस्कार का जन्म ही अभाव से शुरू होता है। ये अभाव मन का भी होता है, तन का भी। पर जो इस अभाव से ऊपर है, वो जानता है कि अकेले जीना कोई जीना नहीं होता।
आठवीं कक्षा में पढ़ाई गई इस कहानी को जिसने सिर्फ परीक्षा पास करने के लिए पढ़ा वो रिश्तों के मर्म को नहीं समझ पाया। लेकिन जिसने परीक्षा से परे ज़िंदगी को समझने के लिए इसे पढ़ा उसके लिए तो गुरूमंत्र है ये कहानी।
मैं जानता हूं कि मेरे परिजनों में सब बड़े घर की बेटियां हैं, इसीलिए हम सब आपस में जुड़े हैं, वरना कब के बिखर गए होते।
कई महिलाएं कह सकती हैं कि घर को जोड़ने का काम पुरुषों का भी तो है, केवल महिलाओं पर सारी जिम्मेदारी क्यों? बिल्कुल सही। आप बेटियों को बेटा भी पढ़ सकती हैं।
आज के संदर्भ में मैं इतना ही कहूंगा कि जो रिश्तों को जोड़ना जानते हैं, वो ही बड़े घर के होते हैं।
फिर भी ये कहने में मुझे झिझक नहीं कि परिवार का संचालन तो महिला ही कर सकती है, पुरुष तो 'पगलू' होते हैं। बीवी ने दो आंसू क्या गिराए भाई को छोड़ने को तैयार।
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