सुप्रभात जी।
कहानी सुनी सुनाई।
चिंता संत और संसारी दोनों के मन में होती है पर संत परमार्थ के लिए चिंतित रहता है और संसारी स्वार्थ के लिए चिंचित रहता है। संत और संसारी के बीच का जो भेद होता है, वह कर्मगत नहीं अपितु भावगत होता है। दोनों में वाह्य स्थिति का नहीं अपितु अंतःस्थिति का भेद होता है।
संसारी भी क्रोध करता है और संत भी क्रोध करता है। संसारी लोभ करता है और संत में भी लोभ देखने को मिल जाता है। संसारी भी अर्जन करता है और संत भी अर्जन करता है। संसारी यदि संग्रह करता है तो संत भी संग्रह करता है। दोनों की क्रिया में समानता होने के बावजूद भी भाव एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत होते हैं।
यदि आपके जीवन में भी संग्रह है, लोभ है पर आप अपने द्वारा अर्जित संपत्ति का उपयोग परहित परोपकार में करते हैं। आप उन वस्तुओं का उपयोग स्वार्थ में नहीं अपितु परमार्थ में करते हैं और आप दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी मानते हैं तो सच समझना फिर संसार में रहते हुए और संसारी दिखते हुए भी आप संत ही हैं।
सुरपति दास
इस्कॉन/भक्तिवेदांत हॉस्पिटल
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY