जिसे समाचार बन छा जाना था वो छा गई। अपने उद्देश्य में सफल रही। सोचना तो मीडिया को है कि वो ये जहमत कब उठाएगी कि समाचार की सत्यता को जांच परख कर ही जनता के सामने परोसेगी। जिनका कोई साख कभी रहा ही नहीं उसके साख का क्या बिगड़ेगा। साख लाज तो मीडिया को बचानी है जो टीआरपी के चक्कर में निर्वस्त्र हो जाती है।
Sanjay Sinha उवाच
शेम-शेम
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मैंने आपको बताया था कि मुझे बीबीसी लंदन में नौकरी नहीं मिली थी बस मेरे एक जवाब के कारण। मुझसे एक काल्पनिक सवाल पूछा गया था कि संजय सिन्हा मान लीजिए कि भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया है और आप उस समय बुलेटिन के इंचार्ज हैं तो आप क्या करेंगे?
तब तक टीआरपी नामक राक्षस का जन्म हो चुका था। सबसे तेज होने की होड़ मच चुकी थी। मैंने चहक कर कहा था कि जैसे ही खबर आएगी, मैं उसे पब्लिश कर दूंगा।
“बिना खबर की पुष्टि किए?”
पुष्टि तो बाद में भी हो सकती है। पर मैं खबर देर से दिखलाने की भूल नहीं कर सकता हूं।
यही हमारी ट्रेनिंग थी। टीवी न्यूज़ चैनल में आकर यही हमने सीखा था। तो मैने इंटरव्यू में यही कह दिया था।
लेकिन बीबीसी ने कहा था, "संजय सिन्हा जी गलत जवाब। गैर जिम्मेदाराना जवाब। बिना कनफर्म हुए आप अगर न्यूज़ पब्लिश कर देंगे तो आपकी पत्रकारिता विद्या संदिग्ध है।"
कायदे से मुझे तभी संभल जाना चाहिए था। लेकिन आदमी के रक्त में जो जमा हो, वो कहां जाता है?
मुझे बीबीसी ने मेरी औकात बताई थी। अब एक बहुत मामूली लड़की पूनम पांडे ने देश भर के मीडिया वालों को उनकी औकात बता दी है। उसने बता दिया है कि हमारे यहां की मीडिया कैसी है, कितनी गैरजिम्मेदार है।
पूनम पांडे तो जो थी वो तो थी ही।
पर मीडिया?
दो दिन पहले जब पूनम पांडे की मौत की खबर आई थी, तो मीडिया को मौका मिल गया था, उन्हीं फोटो को फिर से दिखलाने का। मीडिया वाले क्यों मौका चूकते? 19 साल की एक लड़की निर्वस्त्र होकर सबके सामने आ सकती थी, ये उम्मीद ही टीआरपी है।
पूनम की मौत की खबर का सोर्स एक ही था। उनका इंस्टाग्राम हैंडल। और उनके मैनेजर। दोनों ने मीडिया का खूब मजाक उड़ाया। सही मायने में मीडिया को उसकी औकात बता दी। मीडिया अगर रिपोर्टिंग का महत्व समझती तो यकीनन किसी न किसी को अस्पताल भेजती। उनके घर भेजती। मोर्चरी में भेजती। कहीं कोई प्रमाणिक सूत्र मिलते। लेकिन एसी रूम में बैठ कर शो रचने वाले संपादकों और मालिकों को प्रमाणिकता से क्या लेना देना?
जैसी पूनम पांडे, वैसी मीडिया। दोनों नहीं बदले।
एक ने कही, दूजे ने मानी।
टीवी चैनल मदारियों के हाथ में है (ऐसा मत सोचिएगा कि मैं उनसे अलग था)।
“जमूरे, रस्सी पर नाचेगा?”
“नाचूंगा।”
“सांप से कटवाएगा?”
“कटवाऊंगा।”
“मर जाएगा?”
“मर जाऊंगा।”
“फिर जिंदा भी हो जाएगा?”
“हो जाऊंगा मालिक।”
“तो मर जा।”
“मर गया मालिक।”
“अब जिंदा हो जा।”
“जिंदा हो गया मालिक।”
बच्चा लोग बजाओ ताली। जेब में डालो हाथ और और भर दो मेरी थाली….
भाड़ में गया कैंसर। भाड़ में गई संवेदना।
पूनम पांडे शेम-शेम (सिर्फ इसलिए कि उन्होंने कैंसर को पब्लिसिटी का आधार बनाया)। छी!
मीडिया शेम-शेम (आलवेज)।
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