बहुत ही स्वभाविक होता है लोगों का सेलेब्रिटीज़ के प्रति क्रेजी होना । तभी तो उनके साथ अपनी फोटो ऑटोग्राफ के लिए मारा मारी करने लगते हैं । बहुत लोगों का व्यापारिक स्वभाव भी होता है । वो जिससे भी रिश्ते बनाते हैं वहां उनकी प्राथमिकता ही होती है रिश्ते से लाभ उठाना । वैसे लोग स्वार्थ से जुड़े होते हैं इसलिए उनकी रिश्ते की आयु भी अल्पकालिक ही होती है। रही बात आपके स्वभाव की जो कमलपत्र पर पड़े जल के सदृश है । पत्र पर रह कर भी वह पत्र से चिपका नहीं होता है । अपने पद अपनी शोहरत अपने यश को पचाना साधारण व्यक्ति के लिए आसान नहीं होता है । कोई राजा भी हो और स्वभाव से संत भी हो यह बेहद दुर्लभ संयोग होता है । आप जैसे हैं वैसे ही बने रहिये , यही आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि है ।
Sanjay Sinha उवाच
शिकायतों की पुलिया
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स्वागत है आपका शिकायतों की पुलिया पर।
मुझसे कई परिजनों ने कहा कि संजय जी, फलां आपकी बहुत शिकायत कर रहे थे।
“मेरी शिकायत? क्यों? मैंने तो आजतक किसी की बछिया नहीं चुराई।”
“पता नहीं लेकिन कर रहे थे। कह रहे थे कि बातें करना और बात है, होना और।”
मैंने कब दावा किया कि मैं...? मैंने तो कभी नहीं कहा।
मैं फेसबुक पर क्यों आया था?
उदासी का एक ऐसा समय मेरी ज़िंदगी में आया था, जहां मैंने खुद को खो दिया था। खुद को खो देने के बाद मैं जुड़ा था इस आभासी संसार से।
मैं तब भी वही था, जो आज हूं। हां, तब मेरे साथ मेरा एक पद जुड़ा था, और दिलचस्प बात ये है कि मैं खुद कभी उस पद से नहीं जुड़ा थे, जितना वो लोग मेरे पद से जुड़ कर मेरे पास चले आए थे, जिन्हें आज मुझसे शिकायत है। जिन्हें शिकायत है, उन्हें जोड़ने वाला फेविकोल था मेरा पद। हाय-री किस्मत, फेविकोल उनका कमज़ोर हुआ है, संजय सिन्हा का नहीं। वो तो कभी उस आकर्षण से बंधे ही नहीं थे।
मैं तब भी मां का बेटा था, आज भी वही हूं। मैं आसमान पर उकेरे शब्दों के इस संसार से जुड़ा था अपने जीवन की सुबह खुशगवार बनाने के लिए, न कि कुछ पाने के लिए। मेरे लिए रिश्तों का पेड़ ठंडी छांव के लिए था, न फल के लिए, न लकड़ी के लिए। मुझे पेड़ कटने पर तकलीफ होती है। लेकिन उनका क्या, जिन्होंने वृक्ष लगाया ही लकड़ी के लिए? ऐेसे लोग जितनी बार कहें और सोचें कि उन्हें वृक्ष से प्रेम था इसलिए उन्होंने उसे पाला, हकीकत में उन्होंने स्वार्थ में उन्हें पाला था। उन्होंने फल फल चाहा था। लकड़ी चाही थी। ऐसी चाहतों वाले समय आने पर वृक्ष काट देते हैं, क्योंकि उन्हें उन नए वृक्षों की तलाश हो जाती है, जिनसे फल मिले या लकड़ी।
रिश्ता एक वृक्ष है। जिन्हें शीतल छाया चाहिए वो उससे शीतलता प्राप्त करते हैं। जिन्हें फल चाहिए वो फल प्राप्त करते हैं। जिन्हें लकड़ी चाहिए वो उसे काट देते हैं। मैं जानता हूं कि स्वार्थ में रोपे हर पौधे की एक मियाद होती है।
मैं इस काल्पनिक संसार से जुड़ा था अपने छोटे भाई के निधन के बाद। मेरे लिए तो संसार मेरे छोटे भाई के चले जाने के बाद खत्म हो चुका था। उसके बाद का सब कुछ मेरे लिए बोनस में है।
मेरे लिए संसार तब भी बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल था, आज भी वही है। मेरे आगे तब भी शब-ओ-रोज़ तमाशा होता था, आज भी होता है। मेरा चेहरा तब भी साफ था, आज भी है। मैंने न तब कुछ चाहा था, ना आज मेरी कोई चाहत है।
मैं इसी भाव को जीता हूं कि मैं क्या लेकर आया था, और मुझे क्या लेकर जाना है। मैं इस काल्पनिक संसार में कुछ काल्पनिक रिश्ते तलाशने आया था, मुझे हज़ार रिश्ते मिले हकीकत के संसार में। जिन्होंने रिश्तों को माना उन्हें रिश्ते मिले। जिन्होंने व्यापार माना उन्हें व्यापार नहीं मिला तो मैं कैसे ज़िम्मेदार हुआ?
ध्यान रहे, मैं यहां अपने ही आंसुओं से अपनी सुबह की नमकीन हो चुकी चाय को मीठी बनाने आया था। मैं अपनी चाय मीठी बनाने में कामयाब रहा। उम्मीद से सौ गुना अधिक।
मैंने अपने रिश्तों को लोगों पर भी लुटाया दिल खोल कर। कभी रिश्तों को लॉकर में बंद करके नहीं रखा। जो कुछ बंद करके नहीं रखते वो कुछ खोते भी नहीं हैं। जिसने खो दिया है उसे झांकना होगा अपने भीतर है। संजय सिन्हा के भीतर झांकने से क्या मिलेगा? वृक्ष का क्या? लगाया आपने अपने मकसद से। काट लिया आपने अपने मकसद से।
वृक्ष का काम है लगना और कटना। वृक्ष इसकी चिंता करने लगे तो फिर वो कहीं लगेंगे कैसे?
दस साल हो गए मुझे रिश्तों के इस संसार में। मेरे स्वार्थ और मेरे मकसद का पता तो किसी को नहीं मिला। लेकिन जो मैं किसी के मकसद में काम न आ सका तो मैं क्या करूं? तारीफ आपने की थी। शिकायत भी आपकी ही। न तारीफ मेरी थी, न शिकायत मेरी है। न मैं करीब हुआ था, न दूर हुआ। न मैं मुहब्बत में पड़ा था, न नफरत में पड़ा हूं। मैं जो था, वही हूं।
नजरिया उनका बदलता है, जो स्वार्थ में जुड़ते हैं। उनका नहीं, जो प्यार में जुड़ते हैं। जो स्वार्थ में जुड़ते हैं उनकी मुहब्बत की पुलिया बहुत कमज़ोर होती है। उनकी शिकायतों और नफरत की पुलिया ही मजबूत होती है। वही उनका भाग्य होता है। वही उनकी शुरुआत है, वही अंत।
और अंत में-
“मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे, तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।”
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