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ट्रेन की यात्रा जैसी ही है जीवन यात्रा

 
ट्रेन की यात्रा जैसी ही है जीवन यात्रा। 
Sanjay Sinha उवाच
मेरे सामने वाली बर्थ पर
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एसी फर्स्ट क्लास में मेरे सामने की सीट पर पहले से बैठे सज्जन बहुत देर तक खेलते रहे। कभी मोबाइल से, कभी लैपटॉप से। बीच-बीच में किसी से बहुत देर तक फोन पर जोर-जोर से बातें भी करते रहे। एक से प्यार से बात कर रहे थे। दूसरे को डपट रहे थे। फिर वो फोन पर ही कोई फिल्म देखने लगे। कुछ देर फिल्म देखने के बाद थैले से कुछ निकाल कर खाने लगे। 
संजय सिन्हा बिल्कुल सामने बैठ कर उन्हें देख रहे थे। ट्रेन यात्रा में मेरे लिए सबसे मुफीद काम होता है पढ़ना। पर इस बार की यात्रा में मैं किताब नहीं, ज़िंदगी को पढ़ रहा था। अटेंडेंट को उन्होंने दो बार आवाज़ दी। “दोस्त तकिया दो मिलेगा?”
अटेंडेंट पका हुआ था। उसने दोनों बार कहा, जी अभी ला रहा हूं। पर वो अंत तक दूसरा तकिया लेकर नहीं आया। 
इतनी मोटी खाल हो तो आदमी को सिर्फ राजनीति करनी चाहिए, अटेंडेंट का काम नहीं। जब मैं केबिन से बाहर निकला तो मैंने उससे पूछ लिया कि भाई साहब दो तकिया मांग रहे हैं। दे क्यों नहीं देते? 
“कहां से दे दूं, सर? गिनती के मिलते हैं। सब दो मांगते हैं। किस-किस को दूं?”
फिर मना कर दो।
“काहे को उनका मूड खराब करूं? आदमी उम्मीद में ज़िंदगी काट देता है, यहां तो कुछ घंटों की यात्रा ही करनी है। कौन-सा मैं दुबारा उनको मिलने वाला हूं?”
संजय सिन्हा ट्रेन के एसी फर्स्ट क्लास के अंटेंडेंट से जीवन ज्ञान प्राप्त कर अपनी जगह पर लौटे।
सामने वाले भाई साहब फुल जोश में थे। जोर-जोर से बिना हेड फोन लगाए फोन पर कुछ सुन रहे थे, देख रहे थे। मैं कह सकता था कि आप ईयर फोन लगाएं, लेकिन मैं तो ज़िंदगी पढ़ रहा था। मैंने तय कर लिया था कि इस बार किताब नहीं पढ़ूंगा। 
वो फोन पर कुछ देख रहे थे, थैले से निकाल कर कुछ खा रहे थे। 
फिर उन्होंने मुझसे पूछा, “कहां तक जाएंगे?”
“दिल्ली।”
“ट्रेन भी तो दिल्ली तक ही जाएगी।”
“जी, जहां तक ट्रेन जाएगी वहीं तक जाऊंगा।”
और दिन होता तो मैं उनसे बातें करता। मैं हमेशा ट्रेन में सह यात्री से दोस्ती कर लेता हूं। कुछ सुनता हूं, कुछ सुनाता हूं। कई बार हमारी गहरी दोस्ती भी हो जाती है। लेकिन इस बार मैं बिल्कुल बात करने के मूड में नहीं था। मैं उन्हें जीते हुए देखना चाहता था। आदमी कितना जीता है। कितनी खुशी से जीता है। कितनी योजनाओं को जीता है। कितनी तैयारी करता है जीने के लिए। कितनी इच्छाएं करता है। कितनी उम्मीदें पालता है।
बीच-बीच में उन्हें याद आ रहा था कि दूसरा तकिया लेकर नहीं आया। लेकिन वो उम्मीद से थे। ट्रेन कहीं रुकी। चाय वाला आया। उन्होंने केबिन के भीतर से आवाज़ दी। 
चाय।
केबिन खोल कर चाय लेने के बाद वो फिर बैठ गए। चाय मुंह में जाते ही बुरा-सा मुंह बनाते हुए बुदबुदाए, “बहुत ही बेकार चाय है।”
वो दुखी हुए। कुछ देर पहले मोबाइल पर कुछ देख कर वो खुश थे। यही जीवन है। 
कभी ख़ुशी, कभी दुख। 
मैं उनकी एनर्जी का कायल हो रहा था। एक मिनट चैन नहीं। हर पल कुछ और। 
मैं चुपचाप अपनी जगह पर बैठा था। 
उन्होंने फोन चार्ज किया। आगे बहुत कुछ देखना था। 
तकिया नहीं आया था। चाय छोड़ दी थी उन्होंने। 
फिर परेशान थे। पानी वाला भी नहीं आया। वो केबिन से बाहर गए। फिर चले आए। भूरे रंग के एक थैले से उन्होंने खाना निकाला। खाना खाते-खाते मोबाइल पर कुछ देख कर हंसने लगे। तकिया भूल गए। चाय का बुरा स्वाद भी भूल गए। बिस्तर लगा कर लेट गए। लेटे-लेटे मोबाइल देखते रहे। 
देखते रहे। 
देखते रहे। 
बीच-बीच में फोन आता तो चिढ़ते। 
मोबाइल देखते-देखते नाक बजने लगी। मोबाइल साइड में गिर गया। 
वो सो गए। 
मैं देखता रहा। इतनी ऊर्जा। इतनी चाहतें। इतना कुछ करने के लिए। इतना कुछ देखने के लिए। नींद आई। सब छूट गया। 
आदमी खेलता है। जूझता है। लड़ता है। चाहता है। कुछ करता है। फिर नींद आ जाती है। आदमी सो जाता है। फिर सब रह जाता है। 
स्टेशन जब आएगा, तब आएगा। वो सो गए थे। मैं पढ़ रहा था। 
जीवन। 
यही जीवन है। 
चाहत। उम्मीद। भोग। 
फिर नींद आ जाती है। सभी को आनी है। यही सत्य है। 
मोबाइल पर कुछ-कुछ चल रहा था। संजय सिन्हा के कानों में हल्की आवाज़ें आ रही थीं। उन्हें मोबाइल समेटने का मौका भी नहीं मिला था। एकदम से नींद आ गई थी। 
अंत तक लगा हुआ आदमी समेट नहीं पाता है। कब नींद आ जाती है, उसे पता नहीं चलता।
नींद शांति है। चाहतों से शांति, उम्मीदों से शांति। 
कंबल नीचे गिरा था। तकिया सिर से हट गया था। कुछ देर पहले तक दो तकियों की चाहत थी। अब एक भी साथ नहीं था।
वो सो गए थे। आदमी खेलता है। फिर सो जाता है।
चिंताओं से मुक्त संसार में। 
नोट- 
1. आज कहानी का डबल डोज है। आपने कहानी पढ़ ली तो कमेंट बॉक्स में जाकर यूट्यूब पर दूसरी एकदम नई कहानी सुन भी लीजिए। कहानी प्रियंका की। 19 साल की उम्र में शादी हुई। बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी हुई थी। लेकिन शादी के बाद उनकी पढ़ाई का नया दौर शुरू हुआ। 
देखिए- मुझे कुछ करना है…
2.  ssfbFamily व्हाट्सऐप ग्रुप में काफी (काफी नहीं, कुछ) बवाल मचा। इस पर कभी बाद में या शायद कभी नहीं…

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