यूँ बुनी हैं रगें जिस्म की
क्षणभंगुर इस जीवन का हो जाए कब पूर्णविराम कहा नहीं जा सकता। जीवन का वह क्षण जब हंस के जोड़े से एक बिछड़ जाए वो बेहद त्रासदी भरा होता है। परंतु जीवन की यही चाल है। गिरना गिर कर उठना उठ कर स्महलना फिर आगे चल पड़ना।
Sanjay Sinha उवाच
और बस
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“आपका नाम रविंद्र कौर विर्दी है न?”
“सरदारनी रविंदर होती हैं, रविंद्र नहीं।”
कल विर्दी भाभी से मुलाक़ात हुई। बहुत समय बाद।
सात साल पहले जबलपुर में हम पहली बार मिले थे। वो कम बोलती थीं। जो बोलते थे विर्दी भैया बोलते थे। खूब मस्ती करते थे। चार साल पहले एक शाम वो चले गए, जाने कौन से देश। सब कुछ थम गया था।
मैं दिल्ली से जबलपुर आया। जिस्म की लाखों नसों में से बस कोई एक नस टस से मस हो गई थी, सामने ज़मीन पर उनका जिस्म पड़ा था, भैया नहीं थे।
सामने रविंदर भाभी थीं। बस चुप्प।
चार बरस बीत गए। चार वर्षों में हम कई बार मिले, पर कोई बात नहीं हुई। कल पहली बार उनसे कैमरे पर हुई बातें, मैंने सुनी उनसे ज़िंदगी की कहानी।
आज संजय सिन्हा कहानी लिख नहीं रहे, आप कमेंट बॉक्स में यूट्यूब लिंक पर जाकर Ravinder Kaur Virdi भाभी से खुद सुनिए उनकी पूरी कहानी-
“यूँ बुनी हैं रगें जिस्म की, एक नस टस से मस और बस।”
नोट- कहानी का एक टीज़र यहाँ है, पूरी कहानी का लिंक कमेंट बॉक्स में है।
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