Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

बाहर खाने वाले ध्यान दें

 


दादा जी के जमाने में बाहर खाने से बचने वालों को कहा जाता था कि वो बहुत छुआ छूत मानते हैं इसलिए बाहर का नहीं खाते हैं। परंतु वास्तविकता यही थी कि बाहर के खाने कैसे बने हों इसका पता नहीं होता था। छुआछूत कम अपने स्वास्थ्य के प्रति वो ज्यादा सतर्क रहते थे।  स्वाद के लिए बाहर के खाने में जो मिलाया जाता लोग कहते हैं कि उससे कैंसर भी हो सकता है। जवानी में बाहर का खाया पिया पच भी जाता था लेकिन अब तो बिल्कुल भी नहीं। जहां तक सम्भव हो बाहर के खाने से बचने में ही पैसे और स्वास्थ्य की रक्षा है।
Sanjay Sinha उवाच
बाहर खाने वाले ध्यान दें
-------------------
अगर आप भी बाहर खाने के शौकीन हैं तो मेरी ये पोस्ट ध्यान से पढ़िएगा। इसे शेयर कीजिएगा। इस पर चर्चा कीजिएगा। बच्चों को ज़रूर पढ़ाइएगा।
बाहर खाने का रिवाज बढ़ा है। दिन भर काम के बाद सभी की तमन्ना होती है कि कुछ पल सुकून के गुजारे जाएं। पति दिन भर पैसे कमाने के बाद घर आता है तो पत्नी चाहती है कि साथ-साथ दोनों, कुछ नहीं तो शाम का नाश्ता ही साथ कर लें। और डिनर हो जाए तो बात ही क्या?
अगर ऐसा हैं तो संजय सिन्हा का ये ज्ञान आपके लिए बहुत ज़रूरी ज्ञान है। 
पिछले दिनों मेरा और मेरी पत्नी दोनों का पेट खराब हो गया। 
पहले पत्नी का, फिर मेरा। हम दोनों को एक जैसी तकलीफ हुई। हम हैरान थे। पिछले दो दिनों में क्या खाया, क्या पिया हमने इसे याद किया। एक-एक चीज। कागज़ पर लिख कर। क्या कॉमन था हम दोनों के खाने में?
हम हैरान थे कि हमने क्या खाया, इससे अधिक महत्वपूर्ण था कि हमने कहां खाया। 
एक शाम हम दोनों एक नए खुले कैफे में गए थे। कैफे मालिक हमारे परिचित थे और उनका बहुत आग्रह था कि हम वहां जाएं। 
मैंने अलग ऑर्डर दिया था, मेरी पत्नी ने अलग। मतलब हम दोनों के खाने के ऑर्डर कॉमन नहीं थे। हम दोनों ने आखिरी बार बाहर वहीं खाया था और सुबह हमें पेट में तकलीफ हुई थी। 
मुंह सूख रहा था। पेट गुड़गुड़ कर रहा था और बार-बार हमें वाश रूम जाना पड़ा। 
हमने डॉक्टर से बात की। डॉक्टर ने दवा दे दी। हम अब ठीक भी हैं। लेकिन…
मन में ये बात रह गई थी कि खाने में गड़बड़ी कहां हुई?
मैंने अपने परिचित से बात की। मैंने उनके कैफे की रसोई देखने की इच्छा जताई। वो खुशी-खुशी राजी हो गए। संजय जी, आप आइए, देखिए। 
मैंने रसोई का मुआयना किया। 
बहुत बार ऐसा होता है जब हम खुद बहुत-सी बातों का अर्थ नहीं समझते हैं। ऐसा हमारे अज्ञान के कारण होता है। मेरे परिचित के साथ भी ऐसा ही था। मैंने जो मुआयना किया, उसमें उनकी नीयत का दोष कम, जानकारी का अभाव अधिक था। 
रसोई में मेरा ध्यान सबसे पहले गैस स्टोव के ऊपर टंगी चिमनी पर गया। 
चिमनी लगी थी। उसके ऊपर फिल्टर नहीं था। चिमनी से धुंआ बाहर निकले, इसके लिए मोटी-सी पाइप थी और पाइप के पीछे दीवार पर एक्जॉस्ट फैन लगा था। 
वैसे यही है चिमनी की तकनीक। 
मैंने रसोई में खाना बनाने वाले से पूछा कि क्या यहां चूहे, छिपकिली, काकरोच आते हैं? 
खाना बनाने वाले ने स्वीकार किया कि हां, कभी-कभी। हम सुबह उन्हें दवा छिड़क कर भगा देते हैं। हालांकि वो खुद हैरान था कि ये कहां से आते होंगे? कहीं खिड़की नहीं, कहीं कोई रास्ता नहीं।
मैंने उन्हें रास्ता दिखलाया। मैंने बताया कि आपकी चिमनी में फिल्टर नहीं है। एक्जॉस्ट फैन जहां दीवार तोड़ कर लगा है, वहां जाली नहीं है। आपको नज़र ही नहीं आ रहा ये इतना बड़ा और खुला रास्ता आपने छोड़ा है तो चूहे, छिपकिली और कॉक्रोच या अन्य कीड़े आसानी से भीतर आएंगे ही। कभी आपको दिखेंगे, कभी नहीं। रात में आपके किस खाने के सामान से होकर वो गुजरे, शायद आपको कभी पता ही नहीं चलेगा। 
कैफे में कई तरह की चीजें थीं। मैगी, बर्गर, पिज्जा, चिकेन रोल और बहुत कुछ। 
मैंने रसोई का और मुआयना किया।
देखा कि टेबल के नीचे थैले में (खुले में) पत्ता गोभी, प्याज, शिमला मिर्च और कई तरह सब्जियां थीं। मेरे सामने ही बर्गर का ऑर्डर आया तो बर्गर बनाने वाले लड़के ने नीच झुक कर उस खुले थैले से पत्ता गोभी का थोड़ा-सा हिस्सा काटा और चॉपर पर रख कर उसे बारीक काटा। मैं साफ देख रहा था कि बाजार से आने के बाद गोभी धुली नहीं थी। अब एंड प्रोडक्ट जो भी बना हो, खाने वाले को चाहे जितना मजा आ आ जाए, लेकिन पर पत्ता गोभी बिना धोए इस्तेमाल की जा रही थी । किसी का ध्यान ही इस ओर नहीं था। बर्गर में उसे भरा गया, प्याज काट कर उसके छल्ले बना उसे भी बर्गर में भरा गया, साथ में कई और चीज़।
जब सॉस के साथ उसे ट्रे में सजा कर ग्राहक तक ले जाया गया तो वो एक सुंदर प्रोडक्ट दिख रहा था। यकीनन सौ-दो सौ रुपए का वो बर्गर खाने वाले को अच्छा लगेगा। लेकिन संजय सिन्हा के इस कहे को भी सच मानिए को शरीर के लिए घातक था।
ऐसे बहुत सी चीज़ होती हैं, जिनकी बारिकी हम नहीं जानते, नहीं समझते। बहुत बार हमारा पेट खराब नहीं भी होता है। बहुत बार हो जाता है। पर ध्यान रहे, भारत में खराब स्वास्थ्य का एक बड़ा कारण साफ-सफाई की कमी है,जागरूकता की कमी है और पैसे कमाना हमारे देश में बड़ी बात मानी जाती है, कैसे कमाए इस पर कोई ध्यान नहीं देता है। 
क्योंकि बाहर खाने का रिवाज बढ़ा है तो छोटे-छोटे कैफे खोलने का रिवाज भी बढ़ा है। किसी एक इंटरव्यू में हमारे देश के प्रधान मंत्री ने ये गंभीरता से कह भी दिया था कि पकौड़े बेचना भी रोजगार है। 
बेशक वो रोजगार हो सकता है। लेकिन ये प्रश्न उठना चाहिए कि क्या वो पकौड़े बनाने, साफ-सफाई रखने और लोगों के स्वास्थ्य के प्रति जागरूक भी है? कैसे होगा? अगर किसी ने ठीक से स्कूल की पढ़ाई ही नहीं की है, घर में साफ-सफाई का वैज्ञानिक अर्थ नहीं समझा है तो वो क्या पकौड़े बनाएगा? 
दिल्ली में मेरी काम वाली का पति किसी कंपनी में सिक्योरिटी गार्ड का काम करता था। उसे किसी कारण नौकरी से निकाल दिया गया। किसी ने उसे सलाह दे दी कि वो रोड पर ठेला लगा कर नूडल्स बेचे। 
उसके कुछ साथी ऐसा कर रहे थे। उसने यही काम शुरू किया। 
मेरे घर काम करने वाली महिला ने मुझे खुशी से बताया कि संजय भैया, मेरे पति का काम चल निकला है। वो रोज शाम को नूडल्स का ढेला लगाता है। अच्छे पैसे बन रहे हैं। 
मैने खुश होकर पूछा कि कैसे बनता है नूडल्स? कितनी कमाई है?
उसने बताया था कि वो कहीं बाजार से थोक में रेडीमेड नूडल्स लाता है। फिर उसे हम घर पर उबाल कर रख लेते हैं।
कहां रखती हो? फ्रिज में?
नहीं भैया, फ्रिज कहां है? हम तो पलंग के नीचे अखबार बिछा कर उस पर फैला कर रख देते हैं। फिर अगले दिन…
मुझे तो सोच कर ही उल्टी आने लगी थी। तब से आज का दिन है, मैं बाहर नूडल्स खाने से बचता हूं।
छोड़िए वो तो ठेला पर रोजगार था। जानलेवा रोजगार। 
लेकिन जब भी कोई नया कैफे खोले तो सिर्फ उसे मिलने वाले मामूली फूड लाइसेंस को देख कर खुश न हों, न ही इस बात पर खुश हों कि आपके किसी परिचित के नौनिहाल ने पढ़ाई करके नौकरी की जगह रेस्त्रां चलाने को अपना रोजगार चुना है। असल बात है कि वो सारा काम कैसे हुआ है, कैसे हो रहा है? कोई भी  जब कोई नया कैफे, रेस्त्रां खोलें तो उसमें किसी विशेषज्ञ की मदद उसे लेनी चाहिए। सिर्फ इंटीरियर के लिए नहीं, रसोई की हाइजिन व्यवस्था को देखने और समझने के लिए।
 खाना खिलाना सिर्फ व्यापार नहीं है। असल में ये सेवा भी है। 
आप किसी को खराब कपड़े बेचे देते हैं तो आप सिर्फ उसके साथ धोखा करते हैं। खिलाने में की गई गलती का अर्थ है पाप। आप खिलाने के पैसे लेते हैं। आपका धर्म है कि आप साफ-सफाई का पूरा ध्यान रखें। आप सब्जी खरीद कर मंगवाते हैं, उसकी सफाई हुई है या नहीं, अपने घर में मां से पूछ लीजिए कि क्या मां घर में ऐसे ही बना कर आपको खिलाती है? 
हर चीज़ जिसे हम फ्रिज में भी रखते हैं, उसकी एक तय मियाद होती है, ठीक रहने की। ये आपको देखना होगा कि कहीं किसी को सिर्फ इस लालच में कि बचा हुआ कहां फेंके, किसे पता चलेगा, आप गरम करके, सॉस, मसाला मिला कर खिला कर खुश तो नहीं हो जाते कि कमाई हुई? यकीन मानिए अगर आपने ऐसा एक बार भी किया है तो वो पाप था। 
रसोई में लगे उपकरणों को कभी कामचलाऊ नहीं मानें। उनकी वैज्ञानिक समझ रखिए। देखिए कि आपके फ्रिज का क्या हाल है? आपके बर्तन कैसे और कितने धुले हुए हैं? चिमनी कैसी लगी है? 
1. काक्रोच, छिपकिली, चूहे या कोई भी कीड़ा किसी हालत में रसोई तक न पहुंचें, इसे देखना कैफे मालिक की जिम्मेदारी है। अगर एक भी काक्रोच, चूहा, छिपकिली या कोई कीड़ा दिख जाए तो कायदे से तुरंत रसोई बंद करें। पहले उसके स्थायी रूप से हटाने की व्यवस्था कीजिए।
2. बिना धोए कभी कच्ची सब्जी का इस्तेमाल न होने दें। मैं जानता हूं कि कैफे की रसोई में जगह कम होती है, कर्मचारी धोने से बचना चाहते हैं। लेकिन ध्यान रहे, ऐसे ही किसी को बर्गर, पिज्जा में हरी सब्जी खिलाना, सलाद बना देना पाप है। मैं पाप शब्द पर बहुत जोर देता हूं, वजह इतनी है कि कानून से आप बच सकते हैं, उसकी अदालत से नहीं ही बचेंगे, जिसके विषय में आपके मन में दुविधा है कि वो है भी या नहीं?
3. बर्तन ठीक से धुला होना चाहिए। पानी हमेशा उचित फिल्टर का पीने के लिए दें या फिर बोतल का। कभी जल्दबाजी में नल का पानी ग्राहक को मत दे दीजिए। फिर दुहरा रहा हूं कि खान-पान में गलती पर कानून चाहे सख्त हो या लचीला पर ईश्वरीय विधान में सिर्फ  पाप है। मत खोलिए रेस्त्रां, कैफे अगर आप उसे एक मंदिर (मुसलमानों के लिए मस्जिद, ईसाइयों के लिए गिरजा घर और सिखों के लिए गुरुद्वारा) की तरह स्वच्छ रखने की भावना नहीं रखते तो।
4. संजय सिन्हा ने जो कभी रेस्त्रां खोला तो यकीन कीजिए, उसका लक्ष्य ही होगा, साफ और स्वास्थ्यवर्धक भोजन मुहैया करना। पैसा बाई प्रोडक्ट है। अच्छा खिलाएंगे लोग खुश होकर पैसे दे जाएंगे। और पैसे न भी कमाएं तो कोई बात नहीं। लोगों की खुशी, लोगों का स्वास्थ्य दुरुस्त रहे ये समझना बहुत ज़रूरी है।
5. रसोई एक मंदिर है। वहां सच में देवता का निवास रहता है। 
6. दूसरों के साथ वैसा व्यवहार कभी नहीं करें चाहिए जो खुद के लिए नहीं पसंद।
7. और संजय सिन्हा का आज का आखिरी ज्ञान, जो उन्हें उनके पिता से मिला है- पैसा कितना कमाए इसकी कोई अहमियत नहीं है। कैसे कमाए हैं इसकी बहुत अहमियत है। 
कम कहा, अधिक समझिएगा। 


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ