खुशबू का शौक गरीबों को भी होता है। मुझे भी बचपन से था। गरीबी में स्प्रे नहीं खरीद सकता था। बाबूजी तब माला सेंट दे देते थे। जब स्प्रे खरीदने लायक हुआ तो मैग्नेट से ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकता था। हमारे लिए तो साढ़े पांच हज़ार की सेंट बहुत बड़ी खबर है। वहीं अम्बानी यदि दस लाख की सेंट लगा ले तो संपादक श्रेष्ठ उस पर अपनी कलम की सारी रौशनाई ही खर्च कर देंगे। जिन्हें भी शौक होता है अपनी सामर्थ्य अनुरूप ही खर्च करते हैं। वैसे मुफ्ते माल दिले बेरहम का मजा ही कुछ और है।
Sanjay Sinha उवाच
चुरा के दिल (माल) मेरा...
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कोई किसी को यूं ही दान नहीं देता है। कोई किसी पर अपना यूं ही कुछ लुटाता नहीं है। दान और लुटाने के बदले स्वर्ग की चाहत होती है। परलोक में सुख की कामना होती है। बिना चाहत के कोई किसी को कुछ देगा ही क्यों? ये एक तरह का अघोषित बिजनेस है। तुम इधर लो, उधर दे देना।
संजय सिन्हा दान कथा नहीं सुनाने जा रहे। वो तो बस इतना कहना चाहते हैं कि कोई आदमी अपना किसी को कुछ नहीं देता। दान लेना भी एक तरह की लूट है। लूट, बदले में दी जाने वाली छूट। परलोक में छूट।
माल-ए-मुफ्त, दिल ए बेरहम की आपबीती संजय सिन्हा आपको पहले सुना चुके हैं। फिर सुनिए। दानवीर संजय की कथा। लेकिन तब क्या हुआ, जब सत्य सामने आया?
सुनिए पूरी कहानी सुनिए। मेरी कहानी का संदर्भ दान से कम, लुटाने के भाव से अधिक जुड़ा है। कोई मतलब मत निकालिएगा, ये सत्य कथा है।
हमारी नई-नई शादी हुई थी। पत्नी के साथ मैं राजधानी एक्सप्रेस से मुंबई जा रहा था। उन दिनों राजधानी एक्सप्रेस में सफर करने का अपना ही क्रेज था। तब इंडियन एयरलाइंस के ही कुछ हवाई जहाज होते थे और उनमें उड़ने का मतलब होता था, बड़ा आदमी। तब या तो नेता, बड़े सरकारी अफसर हमारे टैक्स के पैसे पर उड़ने का दम दिखा पाते थे, या फिर टैक्स बचाने वाले व्यापारी।
इन दो श्रेणियों के अलावा तीसरी श्रेणी भी होती थी, हनीमून और इमरजंसी वालों की। लेकिन मुझ 'डबल इनकम' वाले लोग राजधानी में चलने को (कभी-कभी) ही अपना गौरव मानते थे। मैंने राजधानी एक्सप्रेस के एसी टू टायर वाले क्लास में अपने लिए बर्थ बुक करा ली थी।
ट्रेन धड़धड़ाती हुई चली जा रही थी। पहले फ्री में चाय, नाश्ता मिला। फ्री? हा हा हा। बस हमें लग रहा था कि टिकट का पैसा पूरा सध रहा है।
फिर सूप। फिर रात का खाना।
डिनर के बाद हम सो गए।
ट्रेन में कुछ लोगों को बीमारी होती है सुबह उठते ही वाशरूम की ओर भगने की। ठीक वैसे ही जैसे संजय सिन्हा नींद खुलते ही कम्यूटर की ओर भागते हैं। लेकिन उन दिनों कम्यूटर, मोबाइल फोन तो थे नहीं, वाशरूम था, लोग उधर ही भागते थे। मुझे उसमें ज्यादा इंटरेस्ट नहीं था। मैं देर तक सोता रहा। नींद खुल गई थी लेकिन यही सोच कर आंखें बंद किए लेटा रहा कि चाय आ जाए, वाशरूम की लंबी लाइन खत्म हो जाए, फिर जाऊंगा।
चाय आई। पत्नी ने नीचे से आवाज़ दी, “संजय, चाय।”
मैं अंगड़ाई लेता हुआ नीचे आया। फिर मैंने कहा कि पता नहीं लोग सुबह-सुबह क्यों भागते हैं तैयार होने के लिए। अरे ट्रेन तो दस बजे पहुंचेगी मुंबई सेंट्रल। इस बीच मैंने नोट किया कि मेरी पत्नी तैयार हो चुकी थी। सामने वाले दंपति भी तैयार हो चुके हैं। मतलब ये लोग भी सुबह-सुबह भाग कर पहुंच गए थे, फ्रेश होने के लिए।
खैर, चाय पीकर मैं भी बढ़ा वाशरूम की ओर।
फ्रेश होने के बाद मैंने देखा कि वाश बेसिन के ऊपर बहुत ही बढ़िया परफ्यूम की शीशी रखी है। मैं समझ गया कि कोई अपना परफ्यूम यहां भूल गया है। किसी और का माल? दिल बेरहम हुआ।
मैंने हाथ-मुंह धो लिया। उसके बाद परफ्यूम की खुशबू भी अपने ऊपर तबीयत से छिड़क ली। लेकिन अभी भी उसमें इतना परफ्यूम बचा था कि दो चार और लोग और खुशबूदार हो सकते थे। मैं मुफ्त की खुशबू में लिपट कर अपनी सीट पर आया। आते ही मैंने अपनी पत्नी को बताया कि इस बार की यात्रा में पूरे पैसों की वसूली हो रही है। वाशरूम में कोई अपना का परफ्यूम भूल गया है। मैंने तो अपने ऊपर खुशबू छिड़क ली है। तुम चाहो तो तुम भी...। अभी उसमें माल है। जो वाशरूम जा रहा है, गमकता हुआ बाहर आ रहा है।
परफ्यूम?
पत्नी चौंकी। हाय, मैं ही वो परफ्यूम लेकर वाशरूम में गई थी। परसों ही खरीदी थी।
पत्नी वाशरूम की ओर भागी। भीतर कोई था। बाहर खुशबू आ रही थी। भीतर वाला भी खुशबू में नहा रहा था।
उसके जाने निकलने के बाद पत्नी ने परफ्यूम की शीशी उठाई। अब उसमें एक आदमी के इस्तेमाल के लायक खुशबू बची थी।
पत्नी का चेहरा रुंआसा था।
वो आकर अपनी सीट पर बैठ गई।
मैं समझ गया कि जिस परफ्यूम को दूसरे का माल समझ कर हम इतनी बेदर्दी से लगा रहे थे, वो दरअसल में...।
"कितने का था?”
“साढ़े पांच हज़ार का।”
“हाय! इतनी बड़ी चपत?”
अब वो हमारी चपत थी।
पत्नी मुझे समझा रही थी कि किसे दोष दूं। किसी का कुछ बाथरूम में छूट गया तो तुम्हीं उसे मुफ्त का माल समझ कर लूट आए, जब तुमने ये तक झांकने की कोशिश नहीं की कि यह लड़कियों के लिए है, फिर मैं किसी और को क्यों दोष दूं? अरे इस ट्रेन के लोग तो ईमानदार हैं। कोई अपनी जेब में रख कर भी ले जाता तो मैं क्या कर लेती?लोगों ने तो एक खुशबू के कुछ छींटे ही मारे। जिन लोगों ने ऐसा किया उनसे मेरा क्या मतलब? पर तुम तो मुफ्त का माल देख कर उससे लिपट ही गए। उपर से मुझे उकसा रहे थे कि जाओ तुम भी लगा लो। दूसरे में माल में दान सुख?
एक्स्ट्रा ज्ञान-
दान और लूट दोनों लगभग एक ही हैं।
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