सुप्रभात जी।
कहानी सुनी सुनाई।
हर व्यक्ति सुखी एवं शांति पूर्ण जीवन की चाह रखता है, लेकिन उसके प्रयास अपनी इस इच्छा के अनुरूप नहीं होते। यह एक सत्य है कि शरीर में जितने रोम होते हैं, उनसे भी अधिक होती हैं- इच्छाएं। ये इच्छाएं सागर की उछलती मचलती तरंगों के समान होती हैं।
मन-सागर में प्रति क्षण उठने वाली लालसाएं वर्षा में बांस की तरह बढ़ती ही चली जाती हैं। अनियंत्रित कामनाएं आदमी को भयंकर विपदाओं की जाज्वल्यमान भट्टी में फेंक देती हैं। वह प्रतिक्षण बेचैन, तनावग्रस्त, बड़ी बीमारियों का उत्पादन केंद्र बनता देखा जा सकता है।
वह विपुल आकांक्षाओं की सघन झाड़ियों में इस कदर उलझ जाता है। कि निकलने का मार्ग ही नहीं सूझता। वह परिवार से कट जाता है, स्नेहिल रिश्तों के रस को नीरस कर देता है, समाज-राष्ट्र की हरी-भरी बगिया को लील देता है। न सुख से जी सकता है, न मर सकता है।
सुरपति दास
इस्कॉन
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