हँसी आज-कल अधमरी हो गई है।
परी जैसी बेटी बड़ी हो गई है।
उमर की खुमारी में आँचल की पूँजी
हिफाजत में माँ की छड़ी हो गई है।
नुकीले मुहाने पे सपना निहारे
निगाहें गड़ी की गड़ी हो गई है।
भरोसे का आँगन, हिदायत-पहाड़ा
महक फूल की सुरसुरी हो गई है।
हमेशा विजेता रही जो सुभागन
परीक्षा में फिर से खड़ी हो गई है।
पहेली बनी है उमर की कहानी
जमानें की नजरें कड़ी हो गई है।
भरोसे को खुद पे भरोसा नहीं तो
बहुत सोचने की घड़ी हो गई है।
सुधीर कुमार ‘प्रोग्रामर’
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY