मैं एक प्राणी हूँ, छोटी सी चिड़ियाँ। आप लोगों ने ही मेरा नाम गोरैया रक्खा है। मुझे संसार के चकाचैंध और आपाधापी से दूर रक्खा है। मैं देश का नागरिक या मतदाता नहीं जो स-समय मेरी पूजा हो, मेरे सामने कोई राजनेता वोट का अपील करे। अच्छा है जो मेरे ऊँपर सैर सपाटे में तेल जलाने का घोटाले की आरोप नहीं। फिर भी लोग मुझे अपने आसपास नहीं रहने देते, ईंच भर जगह में बने घांेसला उजाड़ देते। ठीक है मुझे जागिर नहीं चाहिए, मुझे तो सिर्फ छोटी सी जिन्दगी जीने के लिए प्रकृति प्रदत्त थोड़ी सी हवा, बून्द भर पानी और आँत के लिए कानी भर दाने चाहिए। और हाँ ! उड़ान भरने के लिए गज भर खुला आसमान भी।
गाँव से बेहद प्यार है मुझे और अपनत्व भी, तभी तो मैं रोज गाँव के मैले कुचैले बच्चांे के इर्द-गिर्द रहती हूँ। ‘माफ कीजिएगा ‘मैले कुचैले इस लिए कह रही हूँ, कि वे भोले-भाले होते हंै, साफ दिल के होते है’। रईषजादे की तरह बद-गुमानी नहीं करते। मैं झोपड़ी के आँगन से लेकर विद्यालय के आलय तक बच्चांे के साथ रहती हूँ। बच्चो के साथ इसलिए कि वे भी मेरी तरह चहकना चाहते हैं, ऊँची उड़ान भरना चाहते हैं। हाँ थोड़ा फर्क जरूर है, उन्हे पढ़ाने कि लए कुषल शिक्षक हैं, साधन हैं और मैं ......। मैं तो बस एकटक बच्चों को पढ़ते, शिक्षकांे को पढ़ाते देखती, और मन ही मन गुणती हूँ।
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाँट न लीजै कोय।
बच्चांे के साथ मैं भी अर्थ समझ लेती हूँ। अपने घांेसले में जाकर सोचती हूँ। अर्थ का अनर्थ हो रहा है, रहिम साहब के दोहे का प्रभाव कम वेतन भोगीयों में आज भी है, उनकी आदत चिन्ता करने की है। लेकिन वे दूसरों की विवसता पर चिन्तन किए वगैर उनही कमजोरियो को ढूढ़ने के लिए दिन में भी लुकाठी जला लेते हैं। ऐसा करते वक्त उन्हें होश नहीं रहता कि उनका घर भी प्रदुषित होने जा रहा है। बड़ी-बड़ी मछलियाँ, छोटी मछलियों को अपना आहार बनाती हैं, ऐसा सुना है, मगर एक शिक्षाविद् अपने की शिष्यवत् को आरोपित करें तो .........तो मन दुखता है!
देखिए न, आजकल प्राथमिक षिक्षकों पर अनेका-नेक आरोप लगाने का फैषन चल गया है। जिनके आश्रम और सानिध्य में पढ़कर छात्र षिक्षक बनने के काविल हुए। आज वैसे ही गुरू अपने ही षिष्य पर अयोग्य होने का आरोप लगा रहें है। निकम्मा, अज्ञानी, कामचोर, घोटालेबाज, लोभी, नशावाज, कुकर्मी। मतलव आरोपो के जितने शब्द उनके दिल-दिमाग में दस्तक देते है, सब के सब निचोड़कर प्राथमिक शिक्षकों पर गढ़े और मढ़े जाते है। मैं तो छोटी चिड़ियाँ हूँ, समझ नहीं पा रही हूँ कि अयोग्य गुरू थे या उनके आश्रम से पढ़कर शिक्षक बनने वाले छात्र। संपादक महोदय भी उन्हें ही सर्बोतम लेखक, आलोचक, समालोचक की श्रेणी में स्थान देते है। प्राथमिक विद्यालयों के शिक्षक कुठाराघात एवं कठोरतम आरोप लगाने का सर्बोतम, सुलभ, स्वादिष्ट और सुपच चारा सा बन गए हैं।
सुधीर कुमार ‘प्रोग्रामर’
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