उसने कहा थाएक दिन खुलीकिताब हूँ मैं पढ़के जान लोमुझे। एकसर्द शाम में,मैं ये जानपाया था उसकिताब की भाषामेरे लिए अबूझथी और उसीशाम मुझे अनपढ़ कह कर उसनेवो किताब किसीपढ़ेहुए की सेल्फ में रखदी थी। औरकुछ बरसो बादउस पढ़े हुएइंसान ने उस सेल्फको बेच दियाथा कबाड़ खानेमें उस किताबके साथ।
आज गर्द सेसनी वो किताब मेरे सामने है पर आज भी उस किताब की भाषा मेरे लिए अबूझ ही है।
--सुधीर मौर्य
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