सिसक रहें है
ज़मीं के ज़ख़्म
रिस रहा है लहू
पहाडो के बदन से
जल रहें हैं
जंगल के जंगल
हर रोज़ शमशान में
इंसान अब इंसान
कहाँ रह गया है
नोचने लगा है बदन
अपने ही जन्मदाताओं का
अपने ही पालनहार का
हाँ वो बदल रहा है
आदमी से हैवान में
अब शहर,
शहर नहीं रहे
जिनकी राहों से गुजरते थे लोग
सलाम और जय राम
जैसे मन्त्र गुनगनाते
आज उन्ही राहों पे
दानव रचातें हैं
तांडव
रोड-रेज का
रह जाती है केवल
खबर बनकर
इज्जत लूटना अबलाओं की
घोट दी जाती हैं आवाजें
प्रेम मई जोड़ों की
सहारा लेकर
गोत्र के पाखंड का...
कैद है सारी की सारी मानवता
सिसक रही है
सर्द अँधेरी गुफाओं में दफ़न
जिसके मुहाने पे
खड़ें हैं
दानवी पहलवान
हाथों मे
नग्न चंद्रहास लिए...
सुधीर मौर्या "सुधीर'
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