"बच्चे रोते हैं"
अपने- अपनों से होते हैं,
बच्चे जाने क्यों रोते हैं।
झोपड़ियों में कितने बच्चे सोते हैं,
बच्चे मां - बाप को ढूंढा करते हैं।
अहम बहम की चर्चा होती रहती है,
रातों में भी वे ना कभी सोते हैं।
जबकि शहरों में पकवान वाला फिर
भी, लोग भूखे - नंगे रहकर सोते हैं।
बच्चे जाने क्यों रोते हैं,
अपने अपनों से खोते हैं।
आतंकी विस्फोटक सी दुनिया लथपथ,
आत्मघाती - ऊपर बच्चे रोते हैं।
लूटपाट फिरका परस्ती ठहरे,
नीला आसमान में बच्चे सोते हैं।
जीत हार की सरकारें होती हैं,
उधारी गाड़ियों से बच्चे रोते हैं।
पाखंडी नगाड़ा बजता जब,
सरकार की देखरेख पर होते हैं।
देश - देश के बच्चे जाने रोते हैं,
भूखे नंगे आसमान नीचे सोते हैं।
लपटें लहलह चिंगारी की चलती है,
बट वारों वालों ने सीमाएं उलझी है।
घुमक्कड़ हो ढूंढ रहे कूड़ा करकट ,
साठगांठ के मिड डे मील खोज रहे हैं।
पश्चिम से पूरब जाने की अभिलाषा,
कांच सा बिखरा जीवन खुद ढूंढ रहे हैं।
जाने क्यों बच्चे रोते हैं,
अपने अपनों से होते हैं।
बोलचाल की अपनी भाषा बोल रहे,
झाड़ियों में बच्चे अपनों को खोज रहे।
सुख के लगे दिन सुनहरे ढूंढते हैं,
झोपड़ीयों से कितने बच्चे रोते हैं!
- सुख मंगल सिंह अवध निवासी
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