मानव के विकास मे भाषा का स्थान सर्बोत्म रहा है। जनमानस को सुसंगठित करने का माध्यम समाज मे यदि कुछ रहा है तो वह केवल भाषा ही।उपनिषद युग का साहित्य काब्य, नाटक तथा कथा विन्यास की दृष्टि से हालाकि आलोचना के योग्य है फिर भी इस युग की गद्यात्मक शैली,भाषा के लौकिक रूपो के स्वीकरन केपरिप्रेक्ष्य मे दृढतापुर्वक यह कहा जा सकता है कि इस युग की भाषा कमनीय कल्पनाओ तथा मनोरम अभिब्यक्ति का वाहिका होने से पूर्णत:समर्थ हो चुकी थी। भाषा-अभिब्यक्ति के माध्यम के साथ-साथविचारो की प्रक्रिया को भी प्रभावित और नियंत्रित करती है।
प्रत्येक भाषा का अपना एक क्रम होता है क्रमयुक्त उच्चारित ध्वन्यात्मक प्रतीक ही भाषा का नाम प्राप्त करते है अर्थात मुख से उच्चारित ध्वनि प्रतीको का सुव्यवस्थित प्रकटीकरन ही भाषा है। भाषा कोमल,कमनीय, रोचक,शिक्षा देने वाला ,विश्वास के लायक और सिल सिलेवार होना चाहिए जिसको बहुतायत जन मानस प्रेमपूर्वक आत्मसात कर सके।
यद्यपि हिंदी भाषा,संस्कृत साहित्य अन्य भाषाओ की तुलना मे अधिक कलात्मक एवं वैग्यानिकहै।
उपनिषद काल मे ॠगवेद, यजुर्बेद एवं सामबेद को आध्यात्मिक रूप से भी प्रस्तुत किया गया है कथ्यहै कि इन तीनो वेदो मे शरण प्राप्त करने का विराट कोशोपन में।(1) ॠगवेद,यजुर्वेद और सामवेद को मधु विद्या के विवेचन मे पुस्प तथा मधुकर भी कहा गया है।(2) एक पदी,द्विपदी सा चतुष्पदी(3) अर्थात वाक तत्व के एक दो और चार विभालजन किये गये हैं। आगेवाक तत्व के आठ विभाजन किये गये हैं।(4)
धीती वा य अनयन वाचो अग्रम ।(5)
अर्थात विद्वान चिन्तक के द्वारा वाक तत्व के मूल तक पहुचते हैं।
शास्तो मे पऔराणिककाल, वैदिककाल,आधुनिककाल एवंपरिवर्ती वाकाटक काल का वर्णन भी मिलता है। जहां नागवंश का जिक्र आता है वहां यह स्वीकार करना ही पडेगाकि नागों ने प्राक्रृत भाषा का तिरस्कार नहीं किया है। नागवंश अपने सिक्को पर प्राकृत भाषा का ब्यवहार करते थे। कुशनो के आने से पहले भी प्राकृत ही राज भाषा थी और उसके वाद भी वही बनी रही। राजनीतिक क्षेत्र मे वे प्रजातंत्रवादी थे। भाषा के संबंध मे भी वे प्रजा के बहुमत का ध्यान रकते थे । विद्वान राजशेखर ने लिखा--टक्क लोग अपभ्रश भाषाओं का व्यवहार करते थे।(7)
वेदों में वाक तत्व को विराट कहा गया हैसाथ ही इसके तीन बडॅ विभाग बताये गये हैंयथा--
परा,पश्यन्ती और मध्यमा।(8)
अपभ्रन्श या प्राकृत भाषा हिंदी मे रचना होने का पता हमे विक्रम की सातवीं सदी में मिलता है।(9)
इस दिशा मे सर्ब प्रथम क्रान्तिकारी कदम डा।रामकुमार वर्मा ने उठाया उन्होनें हिन्दी साहित्य का प्रारंभ ७००ई।के आसपास माना और संवत ७५० से १२०० तक की अवधि को हिंदी का आदिकाल मानकर उसका नामकरण संधिकाल किया।(10)
भारतवर्ष के बोलने की भाषा मे बडॅ- बडॅ परिवर्तन हुये हैं।वैदिक काल मे ॠग्वेद की संसकृत थी ऐतिहासिक काल में ब्राह्मणों की संसकत,दार्शनिक काल और बौद्ध कालों में पाली थी,पौराणिक काल में प्राकृत और दशवींशाताब्दी मेंराजपूतों के उदय के समय से वह हिंदी भाषा रही है।(11) वहीको हिंदी मे संसकृत वेदो का अनुबाद स्वामी दयानन्द सरस्वती ने करके हिन्दी को ऊंचाई प्रदान किया।
प्रसिद्ध भाषाविद् जे वान्द्रिये का कथन का कथन हे- भाषा जीवन का स्वाभाविक परिणाम है और सृष्टि के पस्चात जीवन से ही इसका पोषण होता है ।संस्कृत के प्रसिद्ध आचार्य दण्डी का कथन हे-यदि शब्द(भाषा) के आलोक से यह संसार प्रकासित न होता तो सारे जगत में घोर अंधकार व्याप्त हो जाता । डा0 श्यामसुन्दर दास ने कहा है- मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का जो व्यवहार होता है उसे भाषा कहते हैं ।(13) पंडित किशोरी दास वाजपेयी जी-पहले मै भि अवधी ,राजस्थानी, कुमांचली आदि भाषाओं को स्वतन्त्र भाषा न मान कर हिंदि की बोलियाँ मानता था ।हिंदी शब्दानु- शासन में भी यथा सम्भव ऐसा ही लिखा है परन्तु भारतीय भाषा विજ્ઞાन लिखते समय जब भाषा की परिभाषा की तो मत बदल गया और निश्चय हुआ कि अवधी, पांचाली,राजस्थानी स्वतन्त्र भाषाएं हैं । इन सबके स्वतन्त्र नियम और विधि विधान हैं ।(14)
डा0 बाबूराम सक्सेना का मानना है कि -जिन ध्वनि चिन्हों द्वारा मनुष्य परस्पर विचार विनिमय करता है उसे भाषा कहते हैं । विचारोंकी स्पष्ट अभिव्क्ति के लिए भाषा
और शब्दों कि स्पष्टता जरूरी होती है । मेरे विचार से वક્ષ के गूढचिंतन मनन की पराल्प उपज जिसे जनमानस ग्राह्य करें और जगत को प्रकासित करने में सहायक सिद्ध हो सद्भाव पूर्वक जीवन के क्रयमाण जैसे कर्म के परिणाम पसारे शिष्ट समाज का निर्माण करें वह भाषा है ।वैदिक काल की भाषा ॠगवेद के सबसे सादे और सुन्दर
सूत्रों में रક્ષિत है ।ऐतिहासिक काल की भाषा गद्य व्राह्मों और आरण्यकों मे रક્ષિत है ।(15) जिस भाषा में गौतम ईसा के पहले छठी सताब्दी में शिક્ષા देते थे वह अधिक
सीधी और चंचल थी दार्शनिक काल की भाषा पाली पूर्णरूप थी जिसे माधवी इत्यादि नाम से पुकारते है । वौद्ध काल में यह भिन्न -भिन्न रूपों में बोली जाती थी ।
वैदिक काल मे शिष्ट समाज की भाषा संस्कृत थी ।(16) परन्तु जनसाधारण इस समय भी क प्रकार की साधारण भाषा बोलते थे जो प्राकृत भाषा बन गई जो इस काल के
नाटकों मे मिलती है पौराणिक काल के समाप्त होने पर प्राकृत भाषा और बिगड़ गई वह उत्तरी भारत मे लगभग एक हजार इ0 तक हिंदी हो गई ।(17)
हिंदी साहित्य में काल विभाजन - आदि काल- सातवीं सती के मद्धय से चौदहवी सती के मद्धय । भक्ति काल-चौदहवी सती के मद्धय से सत्तरहवी सती के मद्धय । रीतिकाल-सत्रहवी सती के मद्धय से उन्नीसवी सती । आधुनिक काल- उन्नीसवी सती के मद्धय से आगे--।(18)
अधिकांश विद्वान हिंदी का प्रथम कवि सरहपा को मानते हैं। इनका रचना काल 763 ई0 से आरम्भ होता है ।
भाषा पर एक रचना प्रस्तुत है- अलंकार रस छन्द भाव भाषा शैली है ह भाषा है। सदाचार का पाठ पढावै सहानुभूति से जोश जगावै भाषा है॥ तम अरु तमस मिटावै रोम रोम रोचकता लावै वह भाषा है। परहित त्याग करावै तप से જ્ઞાન बढावै वह भाषा है ॥ मसिजीवी मस्तिष्क पर अमिट छाप ल वह भाषा है । संस्कृति संस्कृत हिंदी हिंदजाति जाति प्रेम करावैवह भाषा है ॥ लेखक का जब लेख निखारे शुभकीर्ति पसारे वह भाषा है ॥ मंगल मंजु मंग मंत्र मनमेमिला दे वह भाषा है ॥ (19) भारत में 80 प्रतिशत जनता हिंदी जानती और बोलती है देश के कुछ महापुरुष विद्वानों ने हिंदी पर अपने विचार प्रकट किए है-सर्वश्रीचक्रवर्ती राजगोपालाचारी-सबको हिंदी सीखनी चाहिए इसके द्वारा भाषा विनिमय से सारे भारत की सुविधा होगी । आचार्य विनोवाभावे-मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो यह मै नहीं सह सकता । सरदार पटेल- राष्ट्रभाषा किसी व्यक्ति या प्रांत की सम्पत्ति नही है ,इस पर सारे देश का अधिकार है । डा0 जाकिर हुसेन- हिंदी की प्रगति से देश की सभी भाषाओं की प्रगति होगी । पूर्वप्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी-देश को किसी सम्पर्क भाषा की आवश्यकता होती है और वह भारत में हिंदी ही हो सकती है ।
डा0 भीमराव अम्बेडकर- चूकि भारतीय एक होकरएक समन्वित संस्कृति का विकास करना चाहते हैंइस लिए सभी भारतीयों का परम कर्तव्य हो जाता है कि वे हिंदी को अपनी भाषा समझ कर अपनाएं। महात्मा गांधी-रास्ट्रीय व्वहार में हिंदीको काम में लाना देश की शीघ्रउन्नति के लिए आवश्यक है। कोई भी देश सच्चे अर्थों में तब तक स्वतंत्र नहींहै जब तक वह अपनी भाषा में नहीं बोलता। पंडित जवाहर लाल नेहरू-राष्ट्र भाषा के रूप में हिंदी सारे देश को एकता में सबसे अधिक सहायक सिद्धहोगी।हिंदी एक जानदार भाषा है। वहजितना बढेगी देश को उतना ही लाभ होगा। नेताजी सुभाष चंन्द्र वोष-प्रांतीय ईर्षा द्वेष दूर करने में जितनी सहायता हिदी प्रचार से मिलेगी उतनी दूसरे चीज से नहीं। आचार्य केशवचंद्र सेन- एक भाषा के बिना भारत की एकता नहीं हो सकती और वह भाषा हिंदी है ।
भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी- निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल । भाषा में गुण दोष पर आधरित रचना प्रस्तुत है- भाषा योग अरु भोग बहुत रोग बढावै। बाषा मिलावै राम भाषा शिव गावै।। भाषा स्वर्ग लै जाय भाषा नरकदिखावै। भाषा करै उद्योग भाषा ही कैद करावै ।। मंगल कहत भाषा सुनो भाषा संभारे बोलिये। निज भाषा पर गर्व भाषा एकाग्र करि बोलिये॥(20)
जब कि पंजाबी भाषा अन्य भाषाओं की अपेક્ષા संस्कृत से अधिक मिलती है। इसमे स, श, ष, भी होते हैं तथा उनके रूप संस्कृत के रूपों से अधिक मिलते हैं। उज्जयनी भाषा में रऔर व दोनों होते हैं परंतु माधवी भाषा में र के स्थान पर ल बोला जाता है यथा-राजा दशरथ की जगह लाजा दशलथ बोला, लिखा जाता है। एवं राजा रामचन्द्र की जगह लाजा लामचन्द्र आदि। पुरातत्ववेत्ताओं ने इन तीनों भाषाओं को पाली कहा है । वर्नाक और लेटन साहब अपने एसे सरल पाली लेख में लिखते हैं कि पाली भाषा संस्कृत की विदाई की सीढी के पहले कदम पर है और वह उन भाषाओं में पहली है जिन्होंने इस पूर्ण और उपजाउ भाषा को नष्ट कर दिया । साहित्यकार सैनिकों से अधिक गंभीर और घातक होता है वह महान धीर और अगाध गंभीर हो लड़ सकता है। हिंदीकी जो वर्तमान दशा है उससे वह संतुष्ट नहीं है उसमें असंतोष झलकता है।उसे साहित्य जगत की चिंता जितनी मात्रा में है उतनी ही हिंदी की भी होनी चाहिए।कारण स्पष्ट है कि आजबहुतायत संस्थान हिंदी कीस्मिता पर चोट पहुचाना चाहते हैं। विकृत हिंदी गढने से बाज नहीं आ रहे हैं। भारत के ही नहीं अपितुसभी हिंदी साहित्यकार प्रेमियों से विनम्र निवेदन है कि अब समय रहते और अधिक चूकने से बचें अन्यथा पछतावा ही हाथ लगेगा यानी कि विकृत हिंदी गढने वालों को रोकने की जरूरत है। जितनी आज है संभवत: इससे पहले कभी भी महसूस करने की आवश्यकता न रही हो शायद आप की सुलेखनी विकाश के दौड की एक सजग प्रहरी का कार्य सतर्क हो करे। यद्यपि हिंदी में अनेक भाषा पहले से ही समाहित है। आज इसमें लगभग 4लाख शब्दावली मोजूद हैऔर निर्मित वैજ્ઞાनिक तकनीक विधि शब्दावली को मिलाकर 8लाख हो जायेगी जो भारत ही नहीं विश्व की भाषाओं में मान्य है। आज हिंदी के प्रचार-प्रसार की और व्यापका की आवश्यकता महसूस की जा रही है। यद्यपि कम्प्यूटर, मीडिया, मोबाइल नें धूम मचा रखी है फिर भी सामान्य लोग जानें क्यों हिंदी से दूर हो रहे हैं।अपने बच्चो को हिंगलिश की शिક્ષાदे रहे हैं।इसमें सतर्कता की आवश्यकता भी जरूरी है। हमें हिंदी का पूर्ण જ્ઞાन सीख जान कर ही हिंगलिशसे बचना होगा। भारत के लिए राष्ट्रभाषा क्या हो उत्तर में एक गौरवपूर्ण स्थान हिंदी के अतिरिक्त किसी भी और भाषा को नहीं मिल सकता।यद्यपि उर्दू या अन्य किसीभाषा को दूसरा स्थान प्रदान किया जा सकता है(22)|उदाहरण24मार्च 1979 नागालैंड विधान सभा का एक मत नयी दिल्ली25मार्च1979 हिंदी के माध्यम से हम आधुनिक જ્ઞાन प्राप्त कर सकते हैं। कार्यालयी भाषा कमीशन 1956 पृष्ठ22 में अंकित देवनागरी लिपि में हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाया गया है(24)। सांस्कृतिक हलचल भाषा में अवस्थित हो इसके लिए नये प्रयोगों नये शब्दों की खोज उतनी ही आवश्यक है जितनी कि भाषा के मूल में विकृति से बचना।विभिन्न भाषागत शब्दों को लेने में परहेज नहीं परंन्तु शब्दों को ज्यो का त्यों रखना न भूलें। भारतीय भाषा में मुख्यत: वैજ્ઞાनिक कथा साहित्य आना चाहिए। नव रीति के शब्द,मुहावरे,लोकोक्तियां,आधुनिक विचार और नये भाव का प्रयोग व्यावहारिकता प्रदान करता है। व्यावहारिकता ही भाषा का प्राणतत्व है। हिंदी में संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत, पाली, बंगाली, मराठी, गुजराती, कन्नण, तेलगु, मलयालम, चीनी, जापानी, इंडोनेशियाई, मलेशियाई,उर्दू, अरबी, फारसी, डच, रूसी, चेक, अफ्रीकी, पुर्तगालीआदि देशों की भाषा समाहित है(25)। संदर्भ संकेत-1,(छा़
उ03-17-7),2-(वही1-1-12-3,3-1-3),3(अथर्ववेद शुभाषितावली(9-10-21)4(वही9-10-2)5(वही7-1-1पृ़333)6(भाषा का अंधकारयुगीन इतिहास पृ़122)7(वही) 7(वही) 8(अथर्ववेद शुभाषितावली पृ़334)9(साहित्य एवं संस्कृति पृ174 )10(हिंदी साहित्य का
तिहासपृ174)11( जाहिर है कि एक मात्र भाषा जो हमारे देश की सम्पर्क भाषा की स्थिति पर जाने का दावा कर सकती हे , देवनागरी लिपि में निहित लिखित हिंदी ही है। वी0 जी0 खरे की अध्यક્ષता में सन्1956 में पहले राजभाषा आयोग नें अपनी रिपोर्ट में इस बारे में सिफारिश पेश की, जिन्हें राजनीति शास्त्र जैसी जौहरी की पुष्तक पृ0244 एवं पी 0 राव,ओ पी़ 206-208 । प्रोफेसर राव ने कहा था 35 करोड़ लोगों हेतु स्वाभाविक रूप से सम्पर्क भासा हिंदी ही नहीं है ।यह विश्व की महान भाषाओं में चौथे स्थान पर है । इसका स्थान उत्तरी चीनी, अंग्रेजी और रूसी के बाद आता है ।(भारतीय राजनीतिपृ0244 लेखक जे सी जौहरी)॥ गांधी जी ने कहा -"हमें अपनी भाषा स्त्रोत भाषा की कमियों के बावजूद उसी प्रकार इससे चिपके रहना चाहिए जिस प्रकार कोई बच्चा अपनी माँ की छाती से चिपका रहता है ।(वही245/एविड वालुम पृ0144)॥ वेशक उच्चशिક્ષા के ક્ષેत्र में अराजकता का सामना करना पड़े ।गांधी, अरविंद, जे कृष्णमूर्ति और पाओलो फ्रीयर जैसे विचारकों ने शिક્ષા की आमूल परिवर्तन कारी ક્ષमता को पहिचाना था । वहीं गांधी जी ने शिક્ષા ग्रहण करने वाले के शरीर, मन, आत्मा के समग्र विकास पर बल दिया था ।(योजना2013 सितम्बर)॥
हिंदी आज 70 करोड़ से जादा लोगों की भाषा बन गयी है । हिंदी के समाचार पत्र जागरण और भाष्कर ने दश लाख के आँकड़े को पार कर चुका है हिंदी की लोकप्रियता प्रदान करने के लिए अहिंदी भाषी प्रान्त देश में अशिક્ષા दूर करने की पहल करनी होगी पर उपनिवेश वाद पर काग दृष्टि रखनी होगी ।हमारे
सहयोगी देश जैसे अन्य देशों से आगे बढ़कर अमेरिका का विशेष योगदान हिंदी को बढ़ाने में आज देखने को मिल रहा है । हिंदी विकिपीडिया का शुभारम्भ जुलाई2013 में हुआ, आज तक के आँकड़े के अनुसार केवल हिंदी विकिपीडिया पर 1,11,140 लेख हिंदी में प्रकाशित हो चुका है । हम हिंदी विकी को भारत के एक सामान्य नागरिक की तरफ से कोटि-कोटि धन्यवाद करते हैं । सोशल मीडिया की सक्रियता भारत में मई2013 के आँकड़े में6 करोड़ 60लाख की थी जब कि इसकी पहुच 10 प्रतिशत लोगों तक की ही थी । सोशल मीडिया लोकतन्त्र को मजबूत, सुदृढ़ बनाने की संभावनाओं को अब विश्व की तमाम सरकारों ने स्वीकार कर लिया है । विश्व के एशिया में इन्टरनेट का प्रयोग प्रथम चीन द्वितीय भारत और क्रमवार जापान,इंडोनेशिया, कोरिया साउथ, फिलीपीन, वियतनाम, पाकिस्तान,थाईलैंडऔर मलेशिया का स्थान है ।
भारत में तो उपनिषदों,वेदों तथा उससे भी प्राचीन काल से सुव्यवस्थित शिક્ષા की परम्परा रही है । हमारे प्राचीन ग्रंथों में જ્ઞાन के प्रतिष्ठित केन्द्रों
का उल्लेख मिलता है । दिल्ली, जौनपुर, सिंद, नालंदा, तક્ષशिला विक्रमशिला आदि शिક્ષા के प्रमुख केंद्रों में से रहे हैं ।यहाँ विજ્ઞાन खगोल, चिकित्सा, दर्शन के अलावा व्यवहारिक शिક્ષા के लिए भी विख्यात है । भारत का नाडिया और मिथिला दर्शन व न्याय की शिક્ષા का प्रमुख केन्द्र रहा है । हिंदी की सही सेवा के लिए हमें भ्रमित आँकड़ों से बचमा होगा । शेयरों से भरा पत्र -पत्रिकाओं को मध्यम वर्गीय पाठकों से दूर रखना होगा ।पत्रकारों को पुन: आदर्श पर कायम होना होगा । चलना होगा ,हिंदी को उच्च उद्देश्यों को दिलाने में सहयोग ।सही सेवा करनी होगी । हिंदी साहित्य पर आरोप था कि यह रस रंग में डूबा हुआ साहित्य है ।(हिंदी नव जागरणपृ059)॥ऐसा आरोप रीतिकालीन साहित्य को देखकर निर्णय हुए
जो बहुत गलत भी नहीं था जब कि भक्ति आन्दोलन की कविता चर्चा से बाहर थी ।हिंदी के इतिहास में नाटकों की कमी का अनुमान भारतेन्दु को था जिसे भरसक पूरा करने का प्रयास उन्होंने किया । यद्यपि अंग्रेजों ने हिंदी भाषा को अजायबघर "भारत" का कहा था ।कारण था यहां बोलियाँ,भाषा! जैसे ब्रजभाषा, राजस्थानी, मैथली, खड़ीबोली, अवधी, भोजपुरी जैसी भाषाएं मिलकर एक हिन्दी साहित्य का निर्माण करती हैं ।(वही पृ013)॥
जनसंचार की एक विधा साहित्य पर कम्पूटर का प्रमाण , पिछली शताव्दी तक बहुत कम था लेकिन नयी सदी नें साहित्य भी कम्पूटर की सूचना क्रान्ति से अछूता नहीं रहेगा ।(इक्कीसवीं सदीऔर हिंदी पत्रकारिता पृ0-97)॥
अब जब कम्पूटर मान मस्तिष्क का बिकल्प बन गया है तो उसे फार्मूला वद्ध कहानी कविता का लेखन करना ही होगा ।(वही)॥
पत्र पत्रिका के सम्पादन का कार्य प्राय: साहित्यकार ही करते रहे । हाँ यहाँ यह भी कहना समुचित होगा साहित्यकार और पत्रकार दोनों ही लेखक हैं सर्जनाकार हैं । समाज और साहित्य में बदलाव का उत्तरदायित्व दोनों पर समान रूप से जाता है जब यहाँ भारत से हिंदी पत्र पत्रिका कब कहाँ से प्रकाशित हुई संક્ષિप्त विवरण प्रस्तुत है-
मई30,1826ई0 में साप्ताहिक पत्र "उदन्त मार्तण्ड" सम्पादक युगुल किशोर जी यह प्रकाशित किये यह डेढ़ वर्ष तक चला ।
"हिन्दू हेराल्ड"- मई10,सन्1829 में कलकत्ता से सम्पादन राजा मोहन राय द्वारा हुआ, जिसे " वंगदूत" के नाम से जाना गया ।सन्1845 में गोविंद रघुनाथ वत्ते ने "बनारस"अखबार साहित्य मर्मજ્ઞ राजा शिवप्रसाद सेतारे हिंद की मदद से निकाला । इन्दौर मार्च6,सन्1848 को "मालवा" । सन्1850 में तारामोहन मैत्रेय ने सुधाकर पत्र ।सन्1852 नें "बुद्धिप्रकाश" प्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी रामसुखदास ने आगरा से प्रकाशित किया, इसकी प्रशंसा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी किया था । समाचार सुधावर्धन सन्1854, पायो में आजादी, सन्1857"धर्मप्रकाश", प्रजाहित, જ્ઞાनप्रकाश, જ્ઞાनदायनी पत्रिका, रत्नप्रकाश, आदिसन्1867अगस्त15, कविवचन सुधा पत्रिका भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी काशी से प्रकाशित होता था ।
भाषा का प्रयोग शास्त्रों की प्रयोगशाला में नहीं होता बल्कि दुनिया के किसी भी देश में बोलियों और भाषा की प्रयोगशाला गवारू लोगों का कंठ ही होता है । आचार्य व्याकरण बना सकते हैं शब्दकोश बना सकते हैं ।शब्द नहीं बना सकते हैं । यही कारण रहा हिंदी की रीढ़ हिंदी प्रदेश की आम जनता ने उसे कंठ से उतार कर साहित्य और शब्द कोशों में कैद कर दिया । लेटिन और संस्कृत भाषा इसी घटना का उदाहरण है । नागार्जुन ने लिखा-
हिंदी की है रीढ़ गवारू बोली ,
यह भावना तुम्हीं ने हमनें घोली ।
(वही पृ015)॥
हिंदी पत्रकारिता को विकसित करने में राजेन्द्र माथुर का योगदान अद्वितीय था । उनका सपना हिंदी में एक स्वतंत्र आर्थिक अखबार प्रकाशित करवाने का था । परन्तुअप्रेल8,1991 को माथुर जी के निधन से पत्रकारिता जगत में पूर्ति पर छाया छा गया । आज संपादकों ने अपने को खुद ध्वस्त किया है । अपनी-गरिमा खुद धूमिल की है । स्वतन्त्रता के पहले जो आदर्श थे वह आज नहीं है ।(वही)॥
हमें पुन:उन आदर्शों पर चलना होगा ! ज्यों-ज्यों हिंदी का सम्मान बढ़ेगा हमारा भी शान बढ़ेगा ।
तमिल भाषा में राष्ट्र का अर्थ "हिंदी" यही वहाँ है कहा जाता है । यह भीજ્ઞા होगा कि बंगाल के चैतन्य नहाप्रभु का लगाव हिंदी भाषी शहर "गया" से था । और मराठी के संत कवि नामदेव जी "ब्रज भाषा" में भी लिखते थे , तमिल के सुभ्रमणियम भारती,दयानन्द सरस्वती गुजरात के, केशवचन्द सेन, राजाराम मोहन राय जैसे विद्वान हिंदी प्रेमी रहे ।अब हम बेखटक कह सकते हैं कि हिंदी राष्ट्र भाषा के रूप में आम जनता से लगायत विद्वानों तक एकता की कड़ी बनकर भारत सहित विभिन्न देशों में अधिक से अधिक (तमाम) हिंदी पाठकों को जोड़ने में सेतु का काम कर सकती है अतएव आम व्यवहार में आने वाले शव्दों से रचित कविता, लेख, कहानी,नाटक, उपन्यास और दलित चेतना से भी रूबरू होकर सजग प्रहरी बन कार्य संपादन करना होगा । इस पुनीत कार्य में ग्रामीण अंचल के लोगों का भी ध्यान रखना होगा कारण कि भाषा वहीं से पनपती पल्लवित होती है |
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Sukhmangal Singh
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