“हूँ कवि मैं सरयू -तट का ”
चक्र सुदर्शन दिया विष्णु ने
लक्ष्मी दी संपत्ति अपार
अम्बिका दीं चंद्राकार चिन्हों की ढाल
और रूद्र दिये चंद्राकार तलवार
काम करे सरपट का
हूँ कवि मैं सरयू – तट का
पृथ्वी ने दी योगमयी पादुकायें
आकाश नित्य पुष्पों की मालाएँ
शंख ,समुद्र और सातो समुद्र
पर्वत – नदी हटाईं पथ की बलायें
बना दिया पृथु को जीवट का
हूँ कवि मैं सरयू – तट का
जल – फुहिया जिससे प्रतिपल झरती
वरुण ने दिया छत्र ,श्वेत चंद्र- सम
धर्म ने माला ,वायु ने दो चंवर दिये
मनोहर मुकुट इन्द्र ,ब्रह्मा वेद कवच का दम
सम्पूर्ण सृष्टि का माथा चटका
हूँ कवि मैं सरयू – तट का
सुन्दर वस्त्रों से हुए सुसज्जित
और अलंकारों से पृथु राज
स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान
आभा अग्नि की, दिखे महाराज
पहुंचे सभी न कोई अटका
हूँ कवि मैं सरयू -तट का
सूत – माधव वन्दीजन गाने लगे
सिद्ध गन्धर्वादि नाचने – बजाने लगे
पृथु को मिली अंतर्ध्यान – शक्ति
महाराज पृथु को सभी बहलाने लगे
दे – दे करके लटकी – लटका हूँ
कवि मैं सरयू -तट का
गुणों और कर्मों का ,वंदीजन ने गुणगान किया
पृथु महाराज ने सभी को ,मुक्त भाव से दान दिया
मंत्री,पुरोहित,पुरवासी,सेवक का भी मान किया
चारो वर्णों का एकसाथ आज्ञानुर्वा – सम्मान किया
नहीं गुंजाइस ,किसी से किसी खटपट का
हूँ कवि मैं सरयू -तट का
-सुखमंगल सिंह ,वाराणसी
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