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Dr. Srimati Tara Singh
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इतिहास के आईने में काशी

 

इतिहास के आईने में काशी

मणिकर्णिका का घाट वाराणसी (काशी) का प्राचीन घाट है। जिसका निर्माण 1730 में हुआ कहा गया है।
 इस घाट का असली  उल्लेख 17 वीं सदी में मिलता है। घाट की सीढ़ियों पर बढ़िया बनाई गई हैं। सुन्दर
 सुन्दर मधियों को देख खुश हो जाता है पर्यटकों का दिल काशी की यात्रा आने का कारण सार्थक प्रयास
 सबकुछ काशी की महिमा गंगा का पानी शुद्ध हो जाती है काया। काशी की मान्यता है कि ये मधियान गंगा
 पुत्र के रूप में हैं। काशी का प्राचीन दूसरा घाट दशाश्वमेध घाट हैं जिसका निर्माण कार्य संभवतः 1748 में
 वाजीराव ने कराया था। घाट तो थे परन्तु पक्के घाट 1781 तक काशी में इतने नहीं थे कम घाट पक्के बने
 थे। घाट काम थे फिर भी यात्रा पर आने वाले यात्री दुनियां से आते- जाते रहते थे।
लॉर्ड बैलेंसिया ने काशी के घाटों का वर्णन करते हुए कहा है कि गंगा के किनारे- किनारे पत्थरों से यह घाट
 बने हैं। यहां लोग पूजा पाठ,- स्नान - ध्यान, दान - पुण्य, करते हैं। स्नान के उपरांत धर्म चर्चा आदि करते
 हैं। काशी को गंगा की किनारे होने के कारण काशी का धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्व है।
    राजघाट खुदाई से सबसे महत्वपूर्ण शिवलिंग प्राप्त  हुए वह  शिवलिंग  अविमुक्तेश्वर का शिवलिंग कहा 
जाता है ।इसे देव देव स्वामी भी कहते हैं ।कुछ प्राप्त शिवलिंग की मुद्राएं देवी देवता किन्नरों  और ऋषियों 
द्वारा स्थापित प्राप्त हुआ जैसे कर्दभकरुद्र, बटुकेश्वर स्वामी व योगेश्वर आदि।
   सारनाथ में भी कुछ शिलापट मिले थे जिसपर भगवान बुद्ध के जीवन से जुड़ी चार प्रमुख घटनाएं जन्म 
बोधि, धर्मचक्र प्रवर्तन तथा महापरि निर्माण के दृश्य अंकित किया गया था। उन शिलापट्ट में चार प्रमुख 
शिला पट्ट का वर्णन उल्लिखित है। काशी में खुदाई से त्रिनेत्र और धर्मचक्र से मंडित शिवमूर्ति ,सूर्य मूर्ती ,
विष्णु के सर भी मिले जो सांचों में ढली थीं यह गोपी काल की कारीगरी का द्योतक है | 
काशी मेरी गृहवास्तु कला के भी उत्तम उदाहरण मौजूद हैं। गृह वास्तु की मौजूदगी आज भी काशी मैं 
उपलब्ध है जैसे कि काठ की हवेली,चौखम्भा में सब्जी मंडी के पास है जिसका निर्माण ग्वालियर के राजा 
ने कराया था |  सरस्वती भवन और चेत सिंह की हवेली, जो अति प्रिय प्रसिद्ध है।
हवेलियों में कंगन वाली हवेली - जिसका निर्णाण राजा मान सिंह जी ने करवाया था जो पांच मंजिला 
पंचगंगा घात के बगल में अवस्थित है | 
कश्मीरी मॉल की हवेली - सिद्धेश्वरी मोहल्ले में स्थित है इसका निर्माण सं १७७४ के आस -पास का 
माना जाता हैं | 
काशी अति पुरानी नगरी है पौराणिक कथाओ के अनुसार इस नगरी की स्थापना भगवान् शिव जी ने 
की थी | काशी में कुंडों और तड़ागों का भी उल्लेख लिखित रूप में प्रमाणित मिलते हैं | इन्हीं तगाड़ों में
 से तुलसीघाट के पास लोलार्क और मानसरोवर कुंडों भी हैं | दुर्गाकुंड से कुछ दूरी पर कुरुक्षेत्र कुण्ड है | 
कुण्ड प्रायः मंदिरों के समीप होते हैं | पिसाच मोचन कुण्ड पर हिन्दू अपने पितरों को पिंड दान करने 
आते रहते है | लोलार्क कुंड षष्ठी स्नान का महत्त्व है माना जाता है कि इस कुंड में स्नान कर अपने कपडे 
को त्याग देने से संतान प्राप्ति का फल मिलता है | इसके अलावा सूर्य कुंड जो डी एल डब्लू में 
स्थित है | कुरुक्षेत्र कुण्ड ,राम कुण्ड ,पितृ कुण्ड ,विमल कुण्ड ,मातृ कुण्ड ,बकरिया कुण्ड ,बेनियाँ 
कुण्ड ,कर्णघंटा कुण्ड ,लक्ष्मी कुण्ड और दुर्गा कुण्ड प्रमुख कुंडों में से रहे हैं | 
लोकधर्म के रूप में काशी सहित इत्तर भारत में यज्ञ पूजा,प्रचलित थी | वाराणसी में बरम और वीरपूजा 
भी होती रही है | वाराणसी सहित उत्तर भारत के अनेक भू भाग में बरम पूजा और वीर पूजा होते 
रहे हैं जो प्राचीन यज्ञ पूजा के द्योतक है | प्राचीन परम्परा के अनुसार जो पूजा प्राचीन काल में  होती 
रही है वह आज भी वाराणसी में देखी  जाती है जैसे - यक्ष पूजा ,नाग पूजा ,वृक्षों की पूजा किसी न किसी
रूप में काशी क्षेत्र और आस पास होती रहती है | 
मुस्लिम काल में मुसलामानों द्वारा जिन जिन मूर्धन्य विद्वानों को कासी में सम्मान से सम्मानित 
किया गया उनमें सर्व श्री नारायण भट्ट ,विद्यानिवास भट्टाचार्य ,कविन्द्राचार्य , श्रीकृष्ण दैवज्ञ ,
पंडितराज जगन्नाथ प्रभृति जैसे नाम उल्लिखित मिलते है | वहीँ कई विद्वानों को उपाधियों से मुग़ल
 सम्राटों ने सम्मानित किया ये उपाधियाँ - पंडितराज ,सर्वविद्यानिधान ,जगद्गुरु आदि उपाधियों से 

सम्मानित करते थे |   प्रथम सती  १८२ ई पूर्व यमनों ने साकल (सियालकोट ) जीता था | इसके बाद मथुरा और साकेत जनपदों

 को जीतते और पार करते हुए १९५ ई.पूर्व पाटलिपुत्र यमनों की सेना पहुंच गयी | उस समय का भी काशी

 का प्रमाण मिलता है | उन दिनों बट्स जनपद कौशांबी (इलाहाबाद ) के अधीन था | बत्स जनपद पर पांचालों

 के शासक आषाढ़सेन का भांजा वृहस्पति मित्र शासन करता था कौशांबी का राजा  वृहस्पति मित्र  था | 

        राजा कुमार गुप्त द्वीतीय का शासन काल ६०० ई.के आस -पास रहा जिसने ईशानवर्मा के लेख के 

आधार पर प्रमाणित कहा गया है | कुमार गुप्त द्वितीय की मृत्यु के बारे में कहा जाता है कि उसकी मृत्यु

 प्रयाग में हुई थी  साबित होता है | इस प्रकार कुमार गुप्त का शासन काल इलाहाबाद में रहा सही मालूम 

पड़ता है | ईशान वर्मा  से कुमार गुप्त द्वितीय ने प्रयाग और काशी (वाराणसी) युद्ध में छीन लिया था | जबकि

 वर्मा का पुत्र सर्ववर्णा कुमार गुप्त के पुत्र दामोदर वर्मा को युद्ध में पराजित कर मार डाला था और यह राज्य

 विहार तक फैल गया | राज्य  का विस्तार हुआ | आगे चलकर मौखरियों के आधिपत्य में यह राज्य चला गया |

 राज्य का विस्तार बढ़ता गया यह राज्य उस समय कन्नौज से काशी तक फैल चुका था | 

इस राज्य पर  606 ई से 647 ई तक हर्षवर्धन ने राज्य किया  हर्षवर्धन ने इस राज्य को हथिया लिया था 

इसका विवरण चीनी यात्री हवेनसांग से मिलता है वह कहता है कि - राजधानी का पश्चिम किनारा गंगा था | 

बनारस कि आवादी घनी थी | यहाँ के लोग सभी सभ्य थे | शिक्षा मेन रुचि रखते थे परंतु विभिन्न मतावलंबी

 थे |वरुना के पश्चिम मेन अशोक स्तम्भ था स्तम्भ के साथ -साथ मृगड़ाव विहार आदि भी थे | दीवाल के 

पश्चिम दूसरा उससे पश्चिम मेन तथा तीसरा एक तालाब उत्तर मेन था | मृगड़ाव के पूरब मेन सूखे तालाब के

 किनारे पर एक स्तूप था | इन तालाबों के क्रमश : नाम 'वीर ' और 'प्राणरक्षक ' थे | जिसे बौद्धों ने अत्यंत 

पवित्र तालाब कहा है |

कालांतर मे राजघाट की खुदाई कि गयी | राजघाट की खुदाई मेन प्राप्त सिक्कों से पता चलता है कि कनौज 

के शासक यशोवर्माँ को पराजित करके राजा ललितादित्य ने काशी का राज्य ले लिया और काशी मे प्रतिष्ठित

 हो गया |


चेदिवंश का अधिकार वाराणसी पर १०१५ से १०४१ तक था चेदिवंश का शासक गांगेय देव ने राज्य किया | 

इसी समय एक प्रमुख घटना घटी कि गजनी का सेनापति नियालतिगिनी ने वाराणसी को १०३३ ई. में 

लूट लिया | जान मांस को भारी नुक्सान पहुंचाया | उसके शासन काल के उपरांत गंगदेव का पुत्र लक्ष्मीकर्ण 

ने सं १०४१ई  से १०८१ ई तक काशी पारा अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया और अपने पिता का राज्य 

लड़कर गजनी के सेनापति से वापस ले लिया | लक्ष्मीकर्ण धार्मिक प्रवृति का इंसान था | उसने काशी में

 'कर्णभेरु'नाम का एक मंदिर सं १०६५ ई में काशी में बनवाया इसका उल्लेख 'प्रबंध चिंतामणि 'में मिलता 

है | जबलपुर के ताम्रपत्र और सारनाथ के लेख से भी उसके बारे में जानकारी मिलती है | 

कश्मीकर्ण के मृत्यु के उपरांत गहड़वालवंश का शासन काशी पर हो गया उसने कन्नौज से काशी तक शासन

 किया |   गहड़वालवंश का शासक दूरदर्शी और पराक्रमी शासक था |   गहड़वालवंश का चंद्रदेव नामक वीर 

शासक वाराणसी को अपनी राजधानी बनाया और प्रजा में व्याप्त अराजकता को दूर भगाने के सारे यतन

 किये | उसने बहादुरी का परिचय जनता के सामने रखने का प्रयत्न किया | व्याप्त भय को दूर करने के हर 

सम्भव प्रयत्न किया | हिन्दू मुसलामानों से बदला लेने को लोग सोचने लगे | अलबेरूनी के वर्णन में मिलता

 है कि उत्तर भारत को महमूद द्वारा नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया था यही कारण था हिन्दू जनता मुस्लिमों से 

बहुत खफा हो चुकी थी | 

   चन्द्रदेव (मदन चन्द्र )के मृत्यु के उपरांत शासन सत्ता का कार्य भार मदनपाल के हाथों में आ गया था | 

मदनपाल ने ११०० ई से ११०४ ई के मध्य सिंहासन पर बैठा | इस सम्बन्ध में गोविन्द चंद्र का प्रथम आलेख 

से ज्ञात होता है | गोविन्द चंद को मदन पाल ने व्यवस्था का सारा भार उसके जिम्मेदारी पर दे रखा था 

  मदनपाल का उल्लेख गोविन्दचन्द  ने अपने लेख में लिखा है| 

सं ११०९ से १११४ के मध्य गोविन्द चंद्र शासक बना और उसने लगभग ४० वर्षों तक काशी पर शासन किया |

    गोविन्दचन्द सबसे पराक्रमी राजा सिद्ध हुआ | इसने यवनों ,गौड़ों ,कलचुरियों ,चन्देलों आदि को परास्त 

किया था | साथ ही उसने अपने राज्य की रक्षा भी की थी | 

मल्लदेव (विजयचन्द वा विनयपाल )गोविंदचंद्र के उपरांत राज्य का राजा बना जो   गोविन्दचन्द का पुत्र था | 

उसके बाद  उसका पुत्र जयचन्द ११७० ई में उस गद्दी पर बैठा और काशी पर राज्य करने लगा | जयचन्द 

के कार्यकाल में कुतुबुद्दीन ने बनारस पर चढ़ाई कर दी युद्ध घनघोर हुआ और जयचंद की मृत्यु हो गयी | 

कहा जाता है कि मुसलामानों को आमंत्रण का कारण पृथ्वीराज और जयचंद की घोर शत्रुता के बीच संयोगिता 

को माना गया | 

मुहम्मद गोरी ने कन्नौज पर आक्र गोविन्दचन्द मण करके सं ११ ९३ वे में कन्नौज को जीत लिया उस समय

 कन्नौज का शासक राजा जयचन्द गाहकवाड़ वंश का था | मुहम्मद गोरी ने सं ११६८ से ११९४ ई तक राज्य

 किया | अलग अलग विद्वानों का मत के अनुसार  गाहकवाड़ को दियोडास के वंशज मानते हैं जिनका कार्य

 सत्ता प्राप्त कर ब्राह्मणों को दान देकर स्वं क्षत्री हो गए थे | 

मुहम्मद गोरी ने काशी को जीतने के लिए कुतुबुद्दीनएबक को कार्य दिया था   कुतुबुद्दीनएबक ने सं ११९४ ई 

में काशी पर आक्रमण करा दिया और काशी (वाराणसी) को हथिया लिया | उस समय सैकड़ों मंदिर काशी के

  तोड़ दिये गये थे तथा उन तोड़े गए मंदिरों के स्थान पर मस्जिदों का बनाने का कार्य किया | वाराणसी को 

उसकी सेना ने खूब तहस नहस किया | कहा जाता है की १४०० (चौदह सौ ) ऊंटों प लादकर सामान सोना 

चांदी मंदिरो का उठा ले गये थे | काशी विश्वनाथ मंदिर को भी तोड़ दिया गया था | इस प्रकार काशी पर पूर्ण 

अधिकार सं ११९४ ई में मुसलमानो का हो गया | 

- सुखमंगल सिंह ,अवध निवासी 


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