“कवि हूँ मैं सरजू – तट का “
अन्न- औषधि छिपा के पृथ्वी
सृष्टि में,रूप बदल कर डोले
प्रजा भूख , से हो गई व्याकुल
श्री मैत्रेय ,विदुर से बोले
जीवन सभी का अटका – अटका
कवि हूँ मैं सरजू -तट का
*प्रजा करुण – क्रंदन सुन पृथु ने
शस्त्र उठा लिया हाथ में
पृथ्वी गौ का रूप पकड़ कर
थर – थर – थर – थर लगी कांपने
सर पृथ्वी ने पाँव पर पटका
कवि हूँ मैं सरजू -तट का
*तब गौ रुपी पृथ्वी ने आ कर
विनीत भाव से नमन किया
आप जगत उत्पत्ति – संहारक
विश्व -रचना का मन किया
मेरा हाल तो नटिनी -नट का
कवि हूँ मैं सरजू -तट का
*मेरी अन्न – औषधि सब
राक्षस मिलकर खा जाते थे
सही ढंग से जिन्हें था मिला
वे अन्न – औषधि नहीं पाते थे
यह सब देख के माथा चटका
कवि हूँ मैं सरजू -तट का
*सरयू – गंगा दोनों बहनों का
हिमालय में उद्गम – स्थल है
काली नदी नाम धारण कर
बहुत दूर तक वही पहल है
घाघरा नाम कहावत का
कवि हूँ मैं सरजू -तट का
*- सुखमंगल सिंह
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