Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

कवि हूँ मैं सरजू तट का

 

“कवि हूँ मैं सरजू – तट का “
अन्न- औषधि  छिपा के पृथ्वी 

सृष्टि में,रूप बदल कर डोले 

प्रजा भूख , से हो गई व्याकुल

 श्री मैत्रेय ,विदुर से बोले              

जीवन सभी का अटका – अटका              

कवि हूँ मैं सरजू -तट का                            

*प्रजा करुण – क्रंदन सुन पृथु ने 

शस्त्र उठा लिया हाथ में  
पृथ्वी गौ का रूप पकड़ कर 

थर –  थर –  थर –  थर लगी कांपने                

सर पृथ्वी ने पाँव पर पटका                  

कवि हूँ मैं सरजू -तट का                            

*तब गौ रुपी पृथ्वी ने आ कर 

विनीत भाव से नमन किया 

आप जगत उत्पत्ति – संहारक 

विश्व -रचना का मन किया                  

मेरा हाल तो नटिनी -नट का                  

कवि हूँ मैं सरजू -तट का                            

*मेरी अन्न – औषधि सब 

राक्षस मिलकर खा जाते थे 

सही ढंग से जिन्हें था मिला 

वे अन्न – औषधि  नहीं पाते थे              

यह सब देख के माथा चटका              

कवि हूँ मैं सरजू -तट का                            

*सरयू – गंगा दोनों बहनों का 

हिमालय में उद्गम – स्थल है 

काली नदी नाम धारण कर 

बहुत दूर तक वही पहल है              

घाघरा नाम कहावत का              

कवि हूँ मैं सरजू -तट का                            

*- सुखमंगल सिंह 


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ