कवि हूँ मैं सरयू तट का”(भाग -२ )
(मैत्रेय -विदुर संबाद )
कवि हूँ मैं सरयू तट का
समय चक्र के उलट पलट का
मानव मर्यादा की खातिर
मेरी अयोध्या खड़ी हुई
कालचक्र के चक्कर से ही
विश्व की आँखें गड़ी हुई
हाल ये जाने है घट -घट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
गंधर्वों ने मिल किया गुणगान
सिद्धों ने पुष्पवर्षा से बढ़ाया मान
समवेत स्तुति ब्राह्मणों ने करके
बांटा मुक्त मन से समुचित ज्ञान
बटा ज्ञान भी टटका -टटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
सूर्यवंश का उगा सितारा
कुबेर – सिंहासन ,ब्रह्मा ले आये
धरा-गगन औ रिद्धी -सिद्धि गाये
सभी देवता मिल देखन आये
मगन हुआ मन घट- पनघट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
मनमोहक हरियाली छाई
सकल अवध खुशहाली आई
राजा पृथु का आना सुन
ऋषियों की भी वाणी हर्षायी
प्यासे को जैसे मिला हो मटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
दिया विश्वकर्मा ने सुंदर रथ
चंदा ने अश्व दिये अमृतमय
सुदृढ़ धनुष दिया अग्नि ने
सूर्य ने वाण दिये तेजोमय
शत्रु को करारा दे जो झटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
पृथु – अभिषेक का हुआ आयोजन
वेदमयी ब्राह्मण ने किया अभिनंदन
पृथ्वी -नदी -समुद्र -पर्वत -स्वर्ग -गौ
उन्हें सबने उपहार किया अर्पण
उपहार दिखे सब टटका – टटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
ऋषियों की वाणी थी माधुरी
अर्ति, शक्ति लक्ष्मी अवतार
सुपथ विस्तार करने आये
यशस्वी ‘पृथु ‘ पधारे महाराज
आभा मे न लटका- झटका
कवि हूँ मैं सरयू तट का
अंग वंश के वेन – भुजा मंथन से
हुआ प्रादुर्भाव पृथु और अर्ति का
विदुर – मैत्रेय का सम्बाद सुनाया
गंधर्वों ने सुमधुर गुणगान गाया
समय चक्र के उलट पलट का
कवि हूँ मैं सरयू तट का
– सुखमंगल सिंह ,वाराणसी
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