"मानव दीन ना हो "!
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पौरुष प्रकृति दिया तुमको रे
मानव दीन -हीन ना हो !
राम नाम माला का जपना
धर्म -कर्म में मन को करना
अल्हण -कल्हण का करते हो
पौरुख प्रबो तुमको दिया रे !
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मुफ़्त रसोई -खाट पे चढ़ा रे
साखी -सबद नहीं हिंडोला हो
कोशत काया भ्रम में भटका
का ककहरा बीन बजावत रे !
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चढ़ल बसंत ज्ञान की गठरी
ब्रह्म साधना प्रेम की नगरी
केसर चंदन छिरकत ललना
ताल -मृदंग नहीं पलना रे !
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कहता 'मंगल' निज कर्मों से
जीवन होता यह झेलना रे
दीं हीन बन चाहे ढालना हो
मान ज्ञान ले चलना है रे !
-सुखमंगल सिंह,अवध निवासी
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Sukhmangal
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