Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्राचीन काशी का इतिहास

 

काशी पृथवी पर वह एक प्रमुख नगर है जिसकी गड़ना तीनों लोकों मे न्यारी नगर के रूप में किया जाता है ।
यहां का घाट मणिकर्णिका घाट वाराणसी का प्राचीन घाट है, जिसका निर्माण सन् 1730 में हुआ ।जब कि इस

घाट का उल्लेख7वीं सदी में मिलता है ।घाट की सीढियों पर मढियां हैं जिन्हें गंगा पुत्र कहा जाता है । दूसरा
घाट सशाश्वमेध घाट है,जिसे सम्भवत:1748 में बालाजी बाजीराव ने बनवाया । सन् 1781 तक काशी में इतने घाट नहीं थे । सन् 1803 में लार्डवेलेशिया ने वाराणसी के घाटों का वर्णन करते हूए लिखा है-गंगा के किनारे- किनारे पत्थरों से यह घाट बने हैं । यहा लोग पूजा स्नान धर्मचर्चा आदि करते हैं ।गंगा के किनारे होने से धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्व है । राजघाट खुदाई से सबसे महत्वपूर्ण जो शिवलिंग प्राप्त हुआ वह शिवलिंग अविमुक्तेश्वर का शिवलिंग था । उस शिवलिंग को देव स्वामी भी कहते हैं ।कुछ प्राप्त शिवलिंगों को देवी-देवता किन्नरों और ॠषि द्वारा स्थापित प्राप्त हुये जैसे कदम के रुद्र बटुकेश्वर स्वामी योगेश्वर आदि ।

सारनाथ में चार सिलापट्ट मिले थे, जिस पर बुद्ध के जीवन की चार मुख्य घटना-जन्म बोधि,धर्मचक्र
प्रवर्तन तथा महापौर निर्माण के दृश्य अंकित थे । काशी में गृहवास्तु के भी उत्तम उदाहरण मौजूद हैं,जो प्राय: प्राचीन है । काशी में काठ की हवेली, कश्मीरीमल की हवेली, देवकी नन्दन जी की हवेली अत्यन्त प्रसिद्ध है । काशी के कुन्डों और तालाबों के भी प्रमाण मिलते हैं । काशी के तालाबो में तुलसी घाट के पास लोलार्क औरमान- सरोवर,कुण्डों में दुर्गाकुण्ड, कुछ दूरी पर कुरुક્ષેत्र कुण्ड हैं जो मंदिरों के पास होते थे ।अर्धचन्द्र से मंडित शिवमूर्ति , सूर्य,विष्णु के सिर भी मिले हैं । सांचो में ढ़ली गुप्त काल की कारीगरी का द्योतक है ।लोक धर्म के रूप में काशी सहित उत्तर भारत में यજ્ઞ पूजा प्रचलित थी । वाराणसी के बरम और वीर पूजा प्राचीन यજ્ઞ पूजा के द्योतक हैं । यક્ષૉં, नागों,वृક્ષૉં आदि की पूजा किसी किसी रूप में काशी में आज भी होती रहती है ।

मुसलिम काल में विद्वानों को आकृष्ट करने के लिए या यों कहें कि विद्वानों को समुचित सम्मान प्रदान
करने के निमित्त जिन-जिन मूर्धन्य विद्वानों को काशी में सम्मान प्राप्त हुआ उनमें सर्वश्री नारायण भट्ट विद्यानिवास

भट्टाचार्य , कविन्दराचार्य, श्रीकृष्ण, पंडितराज जगन्नाथ प्रगृति जैसे नाम उल्लेखनीय है ।यहाँ कई विद्वानों को
उपाधियों से पंडित राज सर्वविद्यानिधान जगद्गुरु की उपाधियों से मुगल सम्राट सम्मानित किये थे । यमनों ने प्रथम सती182ई0 पूर्व साकल जीता, इसके बाद मथुरा और साकेत जनपदों को पारकरते पाटलि पुत्र पहुचे । वत्स जनपद कौशाम्बी के अधीन थी, जिसपर पंचाल के शासक आषाढ सेन का भांजा वृहस्पति शासन करता था ।

कुमार गुप्त द्वितीय का शासन काल 600ई0 के आस-पास रहा जो ईशानवर्मा के हडहा के लेख के आधार पर
प्रमाणित हे कहा जाता है । कुमार गुप्तद्वितीय की मृत्यु प्रयाग में हुई थी ।इससे सत्य प्रमाणित होता है कि ईशानवर्मा से कुमार गुप्त द्वितीय ने प्रयाग और काशी छीन लिया था । जब कि वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा, कुमार गुप्त के पुत्र दामोदर

वर्मा को पराजित कर मार डाला था और यह राज्य बिहार तक फैल गया ।
हर्ष वर्धन ने 606ई0 से 645ई0 तक इस राज्य को अपने कब्जे में कर लिया था ।इसका विवरण चीनीयात्री
ह्वेनसांग कहता है कि राजधानी का पક્ષિमी(पश्चिमी)किनारा गंगा था । बनारस की आबादी घनी थी, यहाँ के लोग सभ्य थे, शिક્ષા में लोग रुचि रखते परन्तु विभिन्न मतावलम्बी थे ।वरुणा के पश्चिम में अशोक का स्तूप स्तम्ब, मृगदाय बिहार आदि भी थे।पहली दीवाल के पश्चिमी दूसरी उससे पश्चिम में तथा तीसरी एक तालाब उत्तर में था ।मृगदायके पूरब सूखे तालाब के किनारे स्तूप थे इन तालाबों के नाम वीर और प्राणरક્ષक थे । बौद्धों के अनुसार यह सभी तालाब अत्यन्त पवित्र थे ।

राजघाट खुदाई से प्राप्त सिक्कों से पता चलता है कि कनौज के शासक यशोवर्मा को पराजित कर ललितादिव्य राजा,
काशी में प्रतिष्ठि हो गया ।1015से1041ई0 तक गांगेय देव, चंदिवंश का अधिकार यहाँ रहा इसी समय प्रभु की प्रमुख घटना रही कि गजनी का सेनापति जियाल तिगिनी ने वाराणसी को 1030ई0 में लूटा ।गांगेय के बाद पुत्र लક્ષ્मी1041 से 1081ई0 तक शासन किया । जबलपुर के ताम्रलेख व सारनाथ के लेख से पता चला। लક્ષ્मीकर्ण काशी में कर्णभेरू नाम का एक मंदिर 1065ई0 में काशी में बनवाया ।इसका उल्लेख चिन्तामणि में मिलता है ।इसमें वाराणसी का शासक

को बताया गया है ।लક્ષ્मीकर्ण के मृत्यु के उपरांत कन्नौज से काशी तक गहणवाल वंश ने शासन किया ।
चन्द्रदेव नामक वीर शासक नें वाराणसी को राजधानी बनाया । प्रजा में व्याप्त अराजकता को दूर भगाया । हिन्दू मुसल- मान से बदला लेने को लोग सोचने लगे, क्यों कि अलवेरुनी के वर्णन में महमूद द्वारा त्तर भारत का नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया था ।

चन्द्रदेव के मूत्यु के उपरांत मदन पाल 1100ई0 से 1104ई0 तक सिंहासन पर बैठा । गोविंद चन्द्र का प्रथम लेख
जिस पर व्यवस्था का सारा भार मदन पाल ने दे रखा था, लिखा है ।यह शासक 1124 के पूर्व तक रहा । मदन पाल ने अस्वस्थता में भी युद्धों में जीत प्राप्त किया ।इसका श्रेय भी गोविंद चन्द्र को जाता है । समय ने करवट ली और गोविंद चन्द्र 1110से 1114 के मध्य शासक बना, जो लगभग 40 वर्ष तक शासन किया । गोविंद चन्द्र स्वयं पराक्रमी राजा सिद्ध हुआ ।इसके उपरांत मल्लदेव जो गोविंद का पुत्र था, शासक बना । तद्उपरांत पुत्र जय चन्द्र 1170ई0 मे गद्दी पर बैठा । जयचन्द्र के समय कुतुबद्दीन ने बनारस पर चढाई की और जयचन्द्र की मृत्घोयु हो गयी ।पृथवी राज और जयचन्द्र कीघोर शत्रुता का कारण संयोगिता बनी । भारत पर मुगल आक्रमण का कारन बना जयचन्द्र, जिसने मुगलों को बुलाया था ।

मुहम्मद गोरी ने 1168 से 1194ई0 के समय में कन्नौज पर आक्रमण किया और उसे 1193ई0 में जीत लिया ,
जिसका तत्कालीम राजा जयचन्द्र माहकवाल को दियोदास के वंशज मानते हैं ।जिसका कार्य राज्य सत्ता प्राप्त कर ब्राह्मणों को दान दे कर ક્ષत्रिय हो गये थे ।

मुहम्मद गोरी ने काशी को जीतने के लिए कुतुबद्दीन ऐबक को सौपा था । ऐबक ने1194ई0 में आक्रमण कर काशी
को हथिया लिया । उस समय सैकड़ों मंदिर तोड़े गये तथा इनके स्थान पर मस्जिदें बनायी गयी । विश्वनाथ मंदिर को भी

सम्भवत: इसी समय तोड़ा गया था । मुसलमानों का 1197ई0 में काशी पर पूर्ण अधिकार हो गया था ।

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Sukhmangal Singh

 

 

 

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