वाराणसी सम्पूर्ण विश्व ,भारत के लोगों का मिलन केन्द्र रहा है। यहाँ की संस्कृति सभ्यता स्तित्व की उच्चतम अवस्था से परिपूर्ण यह विद्या का प्रमुख केन्द्र रहा है। काशी में सदा से अन्यान विद्वानों का आगमन होता रहा है। जैसे- आदि गुरु शंकराचार्य ,चैतन्य महाप्रभु,જ્ઞાनेश्वर महाराज,गुरुनानक देव आदि। जातक कथाओं से જ્ઞાत होता है कि काशी धार्मिक आस्था,आध्यात्मिक चेतना,उद्योग और व्यापार कला व् कौशल ,व्यायाम , मल्य विद्या, संगीत, नाटकों का रंगमंच प्रस्तुत करने का प्रमुख केन्द्र है । विविध प्रान्तों से यहाँ आने रहने बसने तथा सर्वधर्म समभाव के कारणों के प्रभाव से यहाँ के जन जीवन में मौज- मस्ती के लिए उत्साह की प्रगाढ़ता बढ़ने पर वह यहाँ के पहचान के रूप में विद्यमान हो गया। काशी हे ! पहचान में सामाजिक व्यवहार, आध्यात्मिक बिचार, खान- पान, रहन-सहन, वेशभूषा, गाना-बजाना, नाटक यात्रा, सामाजिक सार्वजनिक-धार्मिक आयोजन, लोकगीत, लोकनृत्य,क्लासिकल नृत्य,वादन,गायन जन जीवन में सुमार हो गया।
काशी अपने स्तित्व की उच्चतम अवस्था में, वाणभट्ट के काल में पहुचा हुआ था। चीनी यात्री अलवरूनी के यात्रा वर्णन में काशी की समृद्धि के साथ ही જ્ઞાत होता है कि 'यह विद्या का उन दिनों प्रमुख केन्द्र था'। काशी के सिल्क उद्योग से निर्मित सामग्री दूर-दूर तक विख्यात हुई और आज भी जानी जाती है। गुप्त काल और इसके बाद भी काशी(वाराणसी) अद्वीतीय विशेषताओं से अलंकृत थी। भारतीय उद्योग के अच्छे
अच्छे नमूने यूनान और चीन सहित विविध देशों तक पहुँचाए जाते हैं।
काशी में नाटक मंचन के सम्बन्ध में वर्तमान 'गोकुल आर्ट' संस्था से जुड़े डा0एस एस गाँगोली ने जुलाई16, सन्2010 में नागरी प्रचारिणी सभा के स्थापना दिवस एवं बाबू श्यामसुन्दर दास की जयन्ती समारोह में कहा कि सन्1900 के दशक में कवि हृदय 'अतिबल'जी के आग्रह पे हमने एक सप्ताह हिंदी नाटक मंचन नागरी नाटक मंडली कबीर चौरा में शुरू किया। विदेशी मेहमानों को-
कला, साहित्य,संगीत,अध्यात्म एवं यहाँ का बेजोड़ पांडित्य अपनी ओर आकृष्ट करता रहा है। चित्र कला में यद्यपि जयपुर, राजस्थान का नाम आता है,वहाँ मूर्ति कला तीन गलियों और दो सड़कों तक फैला हुआ है। वहाँ के कलाकारों में भी काशी के कलाकार मिले-जुले हैं। जब कि उड़ीसा,मथुरा एवं मद्रास के कलाकारों का उनसे साथ होने से जयपुर राजस्थान प्रमुख कला केन्द्र का दर्जा प्राप्त किया हुआ है।
भक्ति काल के पूर्व का सम्पूर्ण साहित्य संतों सन्यासियों और साधुओं का साहित्य था। रीति काल में गुजराती गंजन काशी वासी थे। वर्तमान समय में भी बहुत गुजराती काशी में रहते हैं। कुछ तो अपना-अपना व्यापार भी कर रहे है। काशी में प्राचीनकाल से ही गुजराती आते रहे हैं। विगत कई वर्षों से समूह में दर्शन पूजन करने गुजराती बन्धु काशी आ रहे हैं। उनके आने से अनेक राज्यों में सभ्यता संस्कृति का आदान प्रदान होता रहता है।
'कमरुद्दन खाँ हुलास' यह लेख एक सामंत राजा दिल्ली सल्लतनत के लिए लिखा था। काशी नरेश के दरवारी रघुनाथ की रचना नें ,काव्य कला रसिमोहन,जगत मोहन एवं इश्क महोत्सव ग्रंथों की चर्चा है। वैदिक साहित्य और જ્ઞાन के भंडार से ओत प्रोत साहित्यकारों से भरा-पुरा काशी अध्यात्म की परम्परा में चार-चाँद लगाने में कोर कसर नहीं छोड़ी। कुछ प्रमुख साहित्यकारों का संक्षिप्त वर्णन निम्नांकित -
स्वामी करपात्री जी का जन्म ग्राम भटनी,जनपद- प्रतापगढ़ में श्रावण शुक्ल पક્ષ सन् 1907 ई0 में हुआ था। स्वामी जी वैदिकाचार्य थे। आप की कृतियाँ हैं-1-वेदस्वरूप-विमर्श:। 2-वेदप्रमाण्य-विमर्श:। 3-वेद अपौरुषेय-विमर्श:। 4- ब्राह्मणानां वेदत्व-विमर्श:। एवं 5- वेद-पामण्य-मीमांसा।
स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती का जन्म श्रावण अमावस्या1911ई0 को महाराज परगने में पं0 हर्षेन्दु द्विवेदी के आत्मज के रूप में हुआ। आप की कृतियों में 1- माण्डूक्य-प्रवचन, 2- मांडूक कारिका प्रवचन, 3-मान्डूक कारिका भाग ,4- कठोपनिषद भाग-1व भाग-2,
5-मुण्डक प्रवचन, 6-ईशावास्य-प्रवचन,7-पुरुषोत्तम-योग।
विद्वानों की कड़ी में 'वेद' विश्वविद्यालय में काशी राजकीय संस्कृत पाठशाला (बनारस संस्कृत कालेज) जो 28 अक्टूबर1791 ई0 को वाराणसी में जोनाथन डंकन द्वारा स्थापित हुआ इसके प्रमुख विद्वान पं0 रामचन्द्र तारा,पं0 वैद्यनाथ(ॠग्वेद) पं0जयराम- भट्ट(ॠग्वेद)पं0मारकण्डेय शुक्ल(सामवेद) पं0 बाबूराम भट्ट(अथर्ववेद)पं0 गोपाल भट्ट(सामवेद)पं0 श्री कृष्णदेव(ॠग्वेद)पं0 सूर्यकान्त मिश्र(सामवेद)एवं सन् 1966 में दा0 गोपाल चन्द्र मिश्र(अथर्ववेद) के महान જ્ઞાनी थे। इनके प्राध्यापक काल में सर्वोन्मुखी विकाश हुआ।
"वर्तमान में भाषा हिंदी भाषा को लेकर जो विवाद हो रहा है? जब कि वह लोग स्वयं स्व में प्रचारक रहे हैं,वस्तुत: प्राचीन काल में भाषा के निमित्त ऐसा विवाद खड़ा हुआ हो" जब कि दક્ષિण भारतीय विद्वानों में हिंदी को बढ़ाने की ललक पहले से ही देखी गई। जैसे वि0 - सुभ्रमण्यम आदि। तमिल प्रदेश अपने छात्रों को हिंदी की जानकारी करा रहा है, यह शुभ संकेत प्रदान होता दिखता है। किसी भी भाषा को जानना अच्छी बात है। प्रत्येक देश की एक अपनी भाषा होनी ही चाहिए। जिससे अपने देश की एक अच्छी पहचान हो। यह मेरी स्वयं की धारणा है। मैं हिंदी को बढ़ा पाऊँ अथवा न बढ़ा पाऊँ।परन्तु वह तीब्र गति से लहरों की भाँति अग्रसर हो रही है। परन्तु गर्व से कह सकता हूँ इसमें जो भाव है वह हमें हमारे हृदय को और कोमल बनाता है। हमने स्वप्न देखा कि कल के इतिहास की रचना अंग्रेजी, हिंदी रचने में प्रमुख भूमिका निभायेगी,जिसके प्रमुख दर्शक मित्र देश होंगे। इस पावन कार्य में जो कोई भी भागीदार हो रहा है। वह सब ही कल का इतिहास होगा।
मदन मोहन मालवीय जी ने सन्1918 ई0 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना किया, जिसे आज 'संस्कृत विद्या धर्म विજ્ઞાन संकाय के नाम से जाना जाता है।'प्राचीन काल से काशी धर्म एवं विद्या के જ્ઞાपन की केन्द्र स्थली रही है। काशी में-
उपनिषद काल के योगियों में सर्व सर्वश्रेष्ठ योगी रहे जैगिशण्य ॠषि। महर्षि वेदव्यास,स्वामी बल्लभाचार्य,आदिशंकराचार्य,महाप्रभुचैतन्य, स्वामी रामानन्द,संत कबीर,गोस्वामी तुलसीदास,स्वामी एकनाथ,गुरुनानक देव,तथा गौतमबुद्ध आदि महान विभूतियों का काशी से जुड़ाव रहा है। काशी से सम्बद्धता का प्रमुख कारण अन्न सूत्रों से संचालित विद्वानों अध्येताओं की नगरी को पल्लवित-पुष्पित होने में काशी नरेश सहित अन्यत्र के श्रेष्ठ राजाओं सहित श्रेष्ठ जनों का सहयोग रहा है। उन दिनों "ક્ષેत्रेभोजनम् मठे निद्रा" की कहावत चरितार्थ थी।
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Sukhmangal Singh
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