" राजा पृथु की स्तुति "पृथु बोले ! सुन स्तुति गानजो कहता सुनें ध्यानमैं अभी से श्रेष्ठ कर्म समर्थ नहींकी मेरा हो कीर्तिमान।कर्म सुकर्म भगत जगत काकवि हूं मैं सरयू - तट का ।यह सुन सूत आदि सब गायकहर्षित हुए मन ही मन नायककहीं आप देवव्रत नारायणआप हैं गुणगान के लायक।प्राकट्य कला अवतार हरी घट काकवि हूं मैं सरयू - तट का।आपका भू - स्वर्ग - पातालदुष्टों को खा जाएगा कालचमकेगा जन-जन का भालसब की सब होंगे खुशहाल।भाग्य जगेगा कूड़े करकट काकवि हूं मैं सरयू - तट का।धर्म मार्ग में निकल करनिरअपराधी को दंड न देंगेसूर्य की किरणें जहां तक होंगीआपका यश राज करेगा।बिंदु न कोई छल कपट काकवि हूं मैं सरयू - तट का।शिव अग्रज सनक आदि मुनीश्वरमाथे चरणों दक चढ़ाएंगेस्वर्ग सिंहासन पर उन्हें आप
सासम्मन बिठाएंगे।
शब्द अर्थ होगा उद्भट का
कवि हूं मैं सरयू - तट का।
पर ब्रह्म का प्राप्ति मार्ग
श्री सनत कुमार बताएंगे
सरस्वती - उद्गम स्थल पर
अश्वमेध यज्ञ कराएंगे।
सींचे खेती ,पानी पुरवट का
कवि हूं मैं सरयू - तट का।
अन्न औषधि छिपा के पृथ्वी
सृष्टि में, रूप बदल कर डाले
प्रजा भूख , से हो गई व्याकुल
श्री मैत्रेय , विदुर से बोले।
जीवन सभी का अटका - अटका
कवि हूं मैं सरयू - तट का।
- सुख मंगल सिंह
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