"संस्कृति मौन खड़ी"
साज सिंगार सजाई कजरी पड़ी,
नीलाम हो रहे खेतिहर खेती खड़ी।
कारी बदरी काले कपड़ों में अडी,
वक्त देखकर कुंठित मंद गति हरी।
पर्दा पीछे जनता सुरसुंदरी में पड़ी,
काट छांट भाग लेंगे वे लकड़ी घड़ी।
कजरी सज धज खड़ी सजी-धजी,
नीलाम हो रहे खेतिहर खेती खड़ी।
फुरूवा पछुआ घर घर के अंदर बाहर
सपने पाले खड़े दिखे पेड़ों के सौदागर
कब लेगी बदली करवट काली चादर
अवसरवादी मुखड़े तहस नहस आकर
परिवर्तन के झमेले में खड़े अंधे बहरे
भोगवाद में पहचान अपनी ना ठहरे।
सभ्यता संस्कृति कोने में ऑन ककहरे
बिखरे बिखरे इतिहास के आईने ठहरे।
निखरे निखरे लंपट जाहिल परे पहरे
आगे पीछे कुछ ना सोचें मुरझाए चेहरे
कदम कदम पर कदम ताल करते बहरे
मान्यताएं प्रचलित गांव शहर ना ठहरे।
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