“हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
“बांचे वेद – शास्त्र हर द्वारे
धरा को लहर – लहर सँवारे
भक्ति -शक्ति का पाठ पढाके
मां सरयू तू हमें उबारे
तुझसे सम्पन्न अयोध्या धाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
तुझसे हर्षित हर कण कण है
रूजन में मेरा हर क्षण है
लहर से तेरी निकली ध्वनि ही
कविता -कला का निर्मल मन है
बड़ा बन गया छोटा नाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
श्री हनुमत आज्ञा पाकर के
तुझमें जो डुबकी लगाता
कई जन्मों के पाप धूल जाते
स्वर्ग में जाके जगह वो पाता
कहते हैं जिसको सुरधाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
युद्ध -कला -पारंगत करता
धर्मराज का पाठ पढ़ाती
संत – हितों की रक्षा खातिर
तपसी -रूप के भेद बताती
चलती सत्य का दामन थाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
शिष्टता -चारित्रिक शुद्धता
आदर- विश्वास का भाव जगाती
राम – लखन -भरत – शत्रुघ्न को
प्रतिपल निरख – निरख इठलाती
भजती रहती सुबहो – शाम
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
विनम्रता की माला पहन के
विष्णु – पग – नख से तूं निकली
सुवर्ण मणि मुक्ता जड़ित अयोध्या
की ओर तूं निकल चली
देशो – दिशा तेरा गुणगान
हे ! मां सरयू तुम्हें प्रणाम
– सुखमंगल सिंह
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