आध्यात्मिक पथिक - पथ
· व्याकुलता से ही ईश्वर का साक्षात्कार हो सकता है | यह तो सभी जानते हैं कि प्रेम की
· पराकाष्ठा बढ़ने पर ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है | जो लोग मुमुक्ष हों उन्हें श्राद्धय का
· अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिए | श्राध्य मृत्युपरांत उसी तिथि को श्राध्य तर्पण ,गौ ग्रास
· ,और ब्राह्मण को भोजन कराने की आवश्यकता होती है जिससे पितृ ऋण से मुक्ति
· मिलती है |
· यह संसार माया का जाल है यहाँ इस संसार में कहा गया है कि एक व्यभिचारी स्त्री की
· भाँती रहना चाहिए | व्यभिचारी स्त्री का ख़ास गन होता है कि उसका मन सारे कार्य
· करते रहने के समय भी यार पर ही लगा रहता है | इसी प्रकार संसार में रहकर सारे कार्य
· करते हुए अपने मन को ईश्वर पारा ही रखना चाहिए | ईश्वर का निरंतर स्मरण करते
· रहना चाहिए |
· बैष्णवों की एक पुस्तक (ग्रन्थ ) 'भक्तमाल ' है यह बड़ी ही उत्तम और अच्छी पुस्तक
· है | इस पुस्तक में वर्णन में मिलता है कि भगवती को विष्णु मन्त्र दिलाया गया | तब
· पिण्ड छोड़ा | भागवत जैसे ग्रन्थ में कहा गया है कि केशव मन्त्र को बिना लिए भवसागर
· के पार जाना कुत्ते की पूंछ पकड़कर महासमुद्र पार करने के सामान कहा गया है | यद्यपि
· अनेकानेक धर्मावलम्बियों ने अपने अपने मत को ही प्रधानता दी है |
· गीता में कहा गया है कि 'ॐ ' में ही सबकुछ है | परमात्मा के सिवाय और जगत अधूरा है
· अर्थात परमात्मा सर्वत्र है सर्वव्यापी है | परमात्मा ही अन्य सभी देवी - देवताओं के पूजन
· - अर्चन करने पर परोक्ष से (आड़ ) शुभ -लाभ का फल प्रदान करता है |
· वेदों में ॐ सच्चिदानंद :शिव:शिव:केशव:
· और केवल शिव: पुराणों में ॐ सच्चिदानंद: कृष्ण: है।
· कहा जाता है कि पिता निर्गुण और सगुण रूप मांता है। इसलिए दोनों ही सही और वंदनीय हैं।
· उसी एक सच्चिदानंद की बात वेद पुराण में भी है।
· वैष्णव के शास्त्रों से ज्ञात में श्री कृष्ण जी भी स्वयं काली हुए हैं बताया गया है।इस बात का सत्य वचन के रूप में पूजनीय स्वामी राम कृष्ण परमहंस जी के मुखार बचत और पढ़ा लिखा गया पोस्ट शब्द है।
· ध्यान योग - हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए। सदा सर्वदा सही समय और मार्ग का ही अवलंबन करना चाहिए।
· सच्चिदानंद स्वरुप भगवन का नाम रूप के ध्यान में सर्व प्रथम रूप से प्रारंभ करके मूर्ति की सहायता लेते हैं।
· भगवान का जप गुणगान चिंतन दूसरी सीढ़ी है। इस क्रिया को करने से,जप तप करने की मुहिम तेज हो जाती है। बराब चिंतन करते रहना चाहिए।
· मन जब लीन होने लगे तो मन लीन होने पर ईश्वर के अस्तित्व सानिध्य का अनुभव होने लगता है।
· ध्यान योग से ध्यान उच्चतर स्तर पर पहुंच जाता है और कालांतर में अतिंद्रिय अनुभूति होती है।
· मैं एक शरीरधारी प्राणी हूँ | अतयेव मुझमें देहांत बुद्धि है | कुछ लोग अद्वैत से अंत की धारणा रखने की बात कराते हैं परंतु हमें देहांत बोध के स्तर से ही भक्ति प्रारम्भ करनी चाहिए | एक सामी हनुमान जी से श्री राम जी ने पूछा था कि तुम मुझे किस दृष्टि से देखते हो !
· हनुमान जी ने कहा –
· हे प्रभो! जब मुझमें देहांत बोध होता है तब मैं आपका दास हूँ | जब मैं अपने को जीव समझता हूँ तब मैं अंश हूँ और जब मैं अपने को आत्मा समझता हूँ तब मैं आपके साथ अभिन्न हूँ ,यह मेरा निश्चय मत है |
· इसके संबंध में और विस्तृत जानकारी के लिए रामकृष्ण वाचनामृतम ,योग शास्त्र,पुराण ,वेदआदि का अध्ययन आवश्यक है |
· ‘मैं महान हूँ ‘
· गुरु श्रेष्ठ नारद मुनि द्वारा ‘मैं महान हूँ ‘कहने पर मुनि श्रेष्ठ सनतकुमार जी ने मुनि की बातें अनुकंपापूर्वक सुनकर ब्रह्म के बारे में उपदेश देते हुये कहा कि ‘वाक’ ब्रह्म है | वाक ब्रह्म की एक अभिव्यक्ति है ,वाक से उच्चतर मन है ,मन से उच्चतर इच्छा है और उससे भी उच्चतर चित्त है | चित्त से भी उच्चतर पंचभूत प्राण विज्ञान ध्यान है | ध्यान सर्वोच आनंद है | इस प्रकार माना जा सकता है कि आनंद ही सानंद है |
· एक कथा जो ब्रह्म विद्या का नाम अश्वशिरा क्यों पड़ा कि जानकारी देना आवश्यक समझता हू का वर्णन संक्षिप्त प्रस्तुत करता हूँ –
· दधीचि ऋषि को प्रवग्र्य(यज्ञकर्म विशेष )और ब्रह्म विद्या का उत्तम ज्ञान है यह बात जानकार एक बार उनके पास अश्वनी कुमार आए और उनसे बीआरएच विद्या का उपदेश करने के लिए उनसे प्रार्थना की |
· अश्वनी कुमार के निवेदन पर दधीचि मुनि ने कहा कि ‘इस समय मैं एक कार्य में लगा हूँ ,इसलिए फिर किसी दिन आना ‘ मुनि कि बात सुनकर अश्वनी कुमार चले गये | अश्वनी कुमार के चले जाने के बाद दधीच मुनि के पास इन्द्र ने आकर कहा कि –‘मुने! अश्वनी कुमार वैद्य हैं, उन्हें तुम ब्रह्म विद्या का उपदेश मत करना और यदि तुम मेरी बात न मानकर अश्वनी कुमार को उपदेश करोगे तो मैं तुम्हारा सिर काट डालूँगा |’
· जब यह कहकर इन्द्र चले गये , उसी समय अश्वनी कुमारों ने मुनि के पास आकर पुनः वही प्रार्थना की | मुनि दधीच ने इन्द्र का वृत्तान्त सुना दिया | यह इस प्रकार सब कुछ सुन कर अश्वनीकुमारों ने कहा – ‘हम पहले ही आपका यह सिर काटकर घोड़े का सिर जोड़ देंगे और उसी से आप हमें उपदेश करें और जब इन्द्र आपका घोड़े का सिर काट देंगे तब हम फिर असली सिर आपका जोड़ देंगे |’
· मुनि दधीच ने मिथ्या –भाषण के भय से अश्वनीकुमारों के कथन को स्वीकार कर लिया | इस प्रकार अश्वमुख से मुनि ने उपदेश दिया | अश्वमुख से उपदेश किए जाने के कारण ब्रह्म विद्या का नाम ‘अश्वशिरा ‘पड़ा |(शुकसागर 429 से साभार)
· सनतकुमारों ने बुद्धि को क्रमश: उठाते हुये कहा – जो भूमा अनन्त है वही आनन्द है | शांत और अल्प में सुख नहीं है |
· आध्यात्म ज्ञान के लिए आहार की विशेष महत्ता होती है |तामसी बुद्धि में सब बातें विपरीत ही दीखा करती है | इस लिए आध्यात्म पथ पर चलने से पहले आहार शुद्धि,स्मृति शुद्धि करनी आवश्यक होती है |आहार शुद्ध होने पर स्मृति शुद्ध होने लगती है तभी आध्यात्मिक स्वरूप याद आता है और हम ध्यानात्मक चेतना में प्रविष्ट होने लगते हैं और हृदय ग्रंथि नष्ट होकर मुक्ति प्राप्ति होती है |
· अनीत्य होने के कारण शरीर असत्य है | शरीर असत्य होने के कारण भिन्न –भिन्न अभिमानी भी असत्य हैं | सत्य तो एक मात्र परमात्मा ही है |
· ध्यान – प्रारम्भ में अपने इष्टदेव की चित्त की सहायता से एक टक एकाग्र मन से अंतरंग में धान करना चाहिए | भगवान का जप करना चाहिए | लगातार प्रति दिन लगे रहना चाहिए | पहले रूप ,फिर गुण और अंत में उनके अनन्त स्वरूप का घ्यान कराते रहना चाहिए | घ्यान का क्रम अनवरत कराते रहना चाहिए | इस प्रकार ध्यान में प्रगति करनी चाहिए | ध्यान कराते समय मन को शांत करके करना चाहिए | शांत मन सर्वोत्तम सत्य मार्ग है | ध्यान तेज बोलकर अथवा चिल्ला कर नहीं करना चाहिए |(पतंजलि योग /इंटरनल कमोनियम )
· भारत को ही उत्तम क्यों कहा गया –
· एक बार भारद्वाज जी ने भृगु जी से उत्तम लोक जानने की इच्छा प्रकट की | उन्होने कहा कि उत्तर में हिमालय के पास सर्वगुण सम्पन्न पूर्णमय प्रदेश ,पूरणदायक, क्षेमकारक और कमनीय है | वही उत्तम लोक है | वहाँ के लोग सर्वगुण सम्पन्न लोभ –मोह शूमय लोग होते हैं | धर्म में वे वैध संदेह नहीं करते और जीविका निर्वाह हेतु वहाँ सर्व साधन सुलभ है |
· वहाँ जो कोई शठता, चोरी, परनिंदा ,दूसरों पर चोट करना , हिंसा ,चुगली करना ,मिथ्या भाषण करने वालों की तपस्या नष्ट हो जाती है | इन सभी बुराइयों से दूर मनुष्यों का ताप बढ़ता है और शुभ फल चाहने वालों का ही जन्म इस भू भाग में होता है |
· मानुष्य का पुनर्जन्म होता है जो जैसा करता है उसको पुनर्जन्म में वह जो किया है वैसा ही फल मिलता है | शास्त्रों का मत है कि जो मनुष्य गुरुजन सेवा और इंद्रिय संयम – ब्रह्मचर्य का पालन करता है वह सम्पूर्ण लोकों का मार्ग जानता है |(नारद पुराण से साभार )
· ‘अध्यात्म क्या है’ की इच्छा अतिशय कलयांकारी सुखमय स्वरूप है | जो सम्पूर्ण प्राणी का हित करे | सम्पूर्ण प्राणी के हित को आध्यात्म कहा गया है | जिस प्रकार समुद्र की लहर उठकर पुनः समुद्र में ही लीन हो जाती है उसी प्रकार पृथ्वी ,वायु ,आकाश,जल,और तेज पांचों भूत प्राणियों में होते हैं | परमेश्वर पांचों भूतों को अपने में समेंट लेता है | जीव परमात्मा का दिया हुआ है और परमात्मा में चला जाता है | परंतु जीव परामातमन को नहीं देख पाता है | परमात्मा को देखने के लिए परमात्मा का दिया हुआ दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती है जिसे प्राप्त करने के लिए परमात्मा मे एकाग्र चित्त होकर प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए |
· जीव को किन – किन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है -
· हर्ष ,प्रीति ,आनन्द ,सुख एवं चिंतन ,शांति को सात्विक गुण समझना चाहिए | असंतोष ,शोक ,लोभ ,परिताप ,स्वप्न,तंद्रा ,आलस्य तमोगुण हैं | जिस मानुषी ने अपने में ग्यारह इंद्रिय मन को बस में कर लिया है उसे तीनों लोकों में सुख मिल जाता है | सत्व (बुद्धि ) क्षेत्रग्य (पुरुष) दोनों सूक्ष्म हैं जिन्हें दोनों में पार्थक्य (अंतर ) ज्ञात हो जाता है वह मानुषी भी सभी लोकों में सुख भोगता है |
· बारहवीं इंद्रिय बुद्धि - मन के द्वारा सभी इंद्रियों को अपनी तरफ खींचकर जब रखता है तभी आत्मा प्रकाशित होता है | जब इंद्रियों को समेटकर सूखे काष्ठ के समान स्थित हो जाय कान,नाक ,जिह्वा,नेत्र त्वचा आदि इंद्रियों को मथकर अपनी अभिलाषा छोड़ देता है और मन को वश में कर लेता है तो वह उसका ध्यान सिद्ध हो जाता है |कभी भी ध्यान में आने वाली बाधाओं से ऊबे नहीं खिन्न ना हों योगी मुनि कभी भी खिन्न – उदासीन नहीं होते हैं | ध्यान में पांचों इंद्रियों एवं मन को स्थापित कर नित्य नियम से अभ्यास करने से ,आत्म संयम करने से ,जो सुख लौकिक पुरुषार्थ में रमने से निरामय मोक्ष योगी जन को मिल जाता है वह दूसरों को दुर्लभ है |
· काम क्रोध मद मोह ,जब लग हृदय न त्यागे
· रघुबर हृदय मन प्रीति ,तब लग नहिं लागे |
· मातु – पिता गुरु देव द्विज ,हरि संत बिनु जाप
· सागर पार लगाईहैं ,गाइये रघुबर आप |
· ज्ञान मार्ग में खोज शोध आवश्यक है ईश्वर सर्वत्र है ! वह कौन है ,कहाँ है ,मिलते क्यों नहीं इत्यादि प्रश्न मन में पानी के बुलबुले की भांति आते –जाते रहते हैं और हमारे विचार में आते हैं और समय – समय पर क्षीण होते रहते हैं | इस वैश्य पर महान ज्ञानी संत श्री रामकृष्ण परमहंस जी ने कहा है कि –
· ‘व्याकुल होने पर ईश्वर मिलते हैं ‘इसके आगे भी उन्होने कहा कि ‘तुम लोग मुमोक्ष हो ‘तू संसार का कार्य करो पर मन ईश्वर पर रखो संसार में व्यभिचारिणी स्त्री की तरह होकर रहो क्योंकि उसका मन सारे कार्य प्रेम से करने के साथ मन यार पर ही रहता है |’
· नीतिया पुरानी ,पिरितिया नई बा
· मनवा विह्वल ,चितवन चपला !
· आज कल बहुतायत लोगों ने धर्म मंत्र से विचलित होकर सारे आध्यात्मिक नियम – संयम को धता बताते हुये परंपरा संस्कृति संस्कार को पीछे छोडते हुये आधुनिकता की चमक में चमचमाने की दौड़ में लगे हुये दौड़ लगा रहे हैं | न प्रकृति की चिंता न सभ्यता की ,न समाज का भय लय में ललकारने निकल पड़े भूखे भेड़िये की भांति |
· प्राचीन परम्पराओं को रूढ़िवादी बता कर अपनों से अलग ,माता- पिता , भाई –बंधु ,समाज से ही नही अपितु पति –
· पत्नी में भी विरक्तता हो रही है और माया – मोह के बंधन मे उतने ही फँसता जा रहा है |
· त्याग जरूरी है परंतु दुर्गुणों का त्याग करो ,इच्छाओं का त्याग करो ! जब हृदय में स्थित सारी इच्छायेँ नष्ट हो जातीं है तब मर्त्य मनुष्य अमर बनकर इसी जीव में ब्रह्म पद प्राप्त कर लेता है |
· साक्षात्कार उपनिषद मेन कहा गया हैं कि ’जब इसी जीवन में हृदय की सारी ग्रंथियां भेदित हो जाती हैं तब मर्त्य मानव अमर बन जाता है | यही वेदान्त की सीख है |
· स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि ‘जब त्यागवृत्ति सबल हो जाती है और तेजपुंज अध्यात्म लक्ष्य सामने ललचाता है ,जब निवृत्ति (सत्कर्म )युक्त हों तो सारी नैतिकता और सारे धर्म की नीव है और वही मानव स्वयंभू है | मानव समाज में धर्म निकालने के बाद बचा हुआ जो है वह पशुओं के समान है |
· जो वेद द्वारा सब विधाओं का उपदेष्टा और वेत्ता है उस परमेश्वर का नाम कवि है | (स्वामी दयानंद सरस्वती )
· वेद द्वारा सब विधाओं का ज्ञान कराने वाला कोई गुरु होगा तो गुरु मंत्र क्या है !-
· अपने मन का भेद किसी को भी न देना ही गुरुमंत्र है ,कहा है कि गुरुजन प्राय: यज्ञोपवीत कराकर ही गुरुमंत्र देते हैं “ (चाणक्यनीतिकम )
· यज्ञोपवीत के द्वारा आचार्य शिष्य को अपने नियंत्रण में लेता है और ज्ञान प्रदान कराता है |(वेदामृत अथर्ववेद सुभाषितम )
· ज्ञान प्राप्त होता है वेदों से इस लिए वेदों के कुछ उपदेशों को प्रस्तुत किया जाना समुचित होगा –कहा गया है कि वेद निंदा ,धूर्त ,राक्षसी प्रवृत्ति ,दस्यु, तस्कर ,चोर लोग कराते हैं |
· वेदों का आदर्श बहुत ऊंचा है |
· वेदयुक्त आचार –विचार करने वाले मानते हैं कि उनके आस –पास देवगण सदैव वास कराते हैं | धार्मिक व्यक्ति दृढ़ विश्वासी होता है |
· श्रीमद्भागवात सुधासागर में तो कहा गया कि मूर्ति रहित अप्राकृतिक मंतर्मूति भगवान यज्ञपुरुष का पूजन जो करता है उसी का ज्ञान पूर्ण एवं यथार्थ कहा गया है |
· ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह अज्ञानी कर्म में आसक्त व्यक्तियों में बुद्धि भेद उत्पन्न कर सतकर्मों में सभी लोगों को नियुक्त करे |
- सुखमंगल सिंह ,अवध निवासी--
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY