"आशा की किरण"
मतलबी दुनिया है किसने जाना
पहचानती नहीं है पर अपनाना।
मतलब पर खाचते हुस्न ले घर
काम निकले गुमनाम हो जाना।
जिंदगी जीने की लत में सामने
सुर्ख होठों पे मुस्कान सुनामी लाना।
कुछ ही दिन पहले दिल रोया उसका
जलियांवाला बाग नहीं सोई थी मानो।
आंखों से आंसू बहे उसने धोया था
कीचड़ सा तन बदन लिए सोया था।
कितनी कीमती वह गाथा थी पुरानी
आंखों में पीड़ा मिलते रहते जवानी।
ख्वाबों में नींद कहां बिताते 'मंगल'
नव कोपल आएगी मुस्कुराते हमदल।
मतवाला मन कुछ समझ नहीं पाता
समाज की उलाहना में दिन बिताता।
एक सच्चाई नंगी थी जो आगे आई
आज न कल वह याद दिला आएगी।
हजारों ख्वाब देखे सुबह नहीं देखी
सूखे पत्ते जैसे गहरी खामोशी देखी।
बंजर धरती पर हरियाली की खोज में
आशा की सरिता नदी कूप की तरफ!
संसार की सुंदरता से दूर खो जाती
कोरे कागजों को बार-बार सजाती।
आशाओं की आहट कड़वाहट में गुम
सोये हुए नर को जगा नहीं पाती थी।
थक हारकर वाणी -मृदुलता लाती
कड़वाहट रिश्तों की दूर भागती।
प्यासा पथिक धधकती आग बुझाता
मायूसी की चादर छोड़ मोतिया सजता
सृष्टि का मूल अस्तित्व बोध कराता
अंधविश्वास तोड़फोड़ आगे बढ़ जाता।
खुशियों की महक से दिल खिल जाता
लाज - शर्म से हुई गुलाबी बहकी बातें
अगले जन्म की सोचे बिना चली आगे
मंगल मन मस्ती का एहसास कराया।
मखमली घास पर नव प्रात जगाया
बना अदब दस्तूर निराला निकला था।
अपनी - अपनी सुख-सुविधा में कोई
उसे जमाने ने कैसे-कैसे बदल डाला।
गैरों की बातों में आ निज को भूल गई
हसरत औ अरमा तिल तिल मार रही।
वेदना का सिलसिला बढ़ता जाता था
ख्वाबों में वे पुरानी यादें आती रहती।
आगोश आलिंगन हित- हाथ निहारता
भुजाएं सहारे में और जगह पसारता।।
-सुख मंगल सिंह
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