"अपनी अपनी भाषा शैली"
साहित्य के किसी रूप की,
ऐसी खींच तान ना की जाय!
खींचतान के बीच में ही,
आत्मा उसकी नहीं रह जाए।
प्राण रूप के उस प्रकार को,
उपयुक्त रूप प्रकट माना जाए।
साहित्य कृति मान तोलने का,
निश्चित बटखरा नहीं है संभव!
सद साहित्य आकार मापने का,
अंतिम गज भी है असंभव।
पहले चरण में भाषा ही बनती,
व्याकरण नियम बनता बाद में।
मौलिक रचना का रूप पहले,
अनुरूप स्वरुप शास्त्री रूप बाद में।
पढ़ने के अनुरूप साहित्य हाथ में,
विवेचन - पद्धति निर्धारण बाद में।
रचनाकार के सामर्थ शक्ति पर निर्भर,
उत्तम शैली रचनाकार की होती।
शैली का संबंध वाह्यांग से होता,
इसका निबंध बहुत महत्वपूर्ण होता।
साहित्य के वाह्यांग के आधार को
शब्द मय भाषा कहीं जाती।
भाषा, शैली की सब कुछ नहीं होती,
भाषा के ऐश्वर्य में प्रकाश शक्ति रहती।
लेखक के मानस व्यक्तित्व का परिचायक,
उसकी शैली ही कहीं जाती !
साहित्य जगत में रचनाकार की,
उसकी शैली ही होती है।
व्यवहारिक जगत में मनुष्य की,
अपनी अपनी शैली होती है।
- सुख मंगल सिंह
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