Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अपनी तो जैसे तैसे

 

अपनी तो जैसे तैसे


बंदा अपने काम का पक्का था
काम निपटाकर सांस लेता था। 
ना चापलूसी न खुशामदी करता
फिर भी जाने खुश न वह चंगा। 

अंधेरे की मलीनता का पर्दा पर
सांझ की सांवली बाहें दिखीं। 
आंखों में विषाद की झलक लिए
किया विभीषिका का प्रत्यक्षीकरण। 

मस्तिक के झंनाटे में मंगल की सोच
था ऑफिस में भारी कम का बोझ। 
काम के जादती पर भी नहीं अफसोस
दिमाग में हर समय मात्र ड्रॉप्ट- नोट। 

छोटे भाई के शिक्षा का भी है बोझ
थकी थकी पत्नी के मन में भी रोष। 
बस से उतरती लड़कियों को देखा
जिनकी आंखों में एक सुनहरा स्वप्न। 

हृदय में अरमान महत्वाकांक्षा के मेले
जिनकी कल्पनायें आशा के पालने में
उल्लास और उमंग की डोर से जूझती
याद आने लगे विद्यार्थी जीवन के दिन। 

नई उमंग नए तर्क नए सिध्दांत और
प्रेरणा की शक्ति दृढ़ता एक विश्वास
बस के अंदर लड़कियों की बातचित
खिलेश्वर कांसे की कटोरी की भांति। 

झंझानाहट -सी हंसी की आवाजें
अभी भी कानों को खनख ए रही थीं
जिससे मंगल मानो दूर भगाना चाहता
अपने  उस घर में यहां अभाव बेबसी। 

जहां कड़वाहट है वातावरण में सियापा
विभीषिका  छाई है अपनाने का अनुभव
यह जीवन यह हुलास उल्लास यह उमंग
यह सपनों की दुनिया से अलग की दुनियां।। 
-सुख मंगल सिंह



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