भोजपुरी और हिंदी का अंतरिक संबंध प्रगाढ है।
हिंदीऔर भोजपुरी दोनों भाषाएं अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित है। हिंदी के ही कुछ तथाकथित विद्वान शुभ गुफा छोड़कर अनावश्यक विषय बना दिए हैं बहस का विषय बना दिया है। इन लोगों का मानना है कि भोजपुरी का एक विकास होता है तो हिंदी कमजोर हो जाएगी। इन लोगों से निवेदन पूर्वक कहा जा सकता है कि महानगरीय संस्कृति में रहकर भोजपुरी के ग्रामीण संस्कृत से दूर हो रहे हैं बलात भोजपुरी संस्कृति को नहीं जानते हैं। इसीलिए लोग हिंदी और भोजपुरी वास्तविक साहित्य को नहीं समझ पा रहे हैं। जबकि हिंदी साहित्य की शुरुआत ही लोक साहित्य के रूप में माना जाता है।
हिंदी साहित्य के कवियों में कबीर दास तुलसीदास जायसी सूरदास रसखान और विद्यापति मीराबाई रामानंद नरहरी दास जैसे सैकड़ो कवि भी लोक भाषा के कवि ही थे। जिन्हें पूर्व मध्यकाल अर्थात भक्ति काल 1350 से 1360 ई के कवियों में माना जाता है। वही उत्तर मध्यकाल अर्थात रीतिकाल 1650 से 1850 ईस्वी में बिहार देवभूषण पद्माकर घनानंद केशव चिंतामणि पद्माकर आदि महान कवि हुए हैं।
कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के बाद हिंदुस्तानी हिंदी के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ। उन दिनों मध्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मैथिली भोजपुरी नागपुरी गहमरी अवधि ब्रज भाषा बुंदेलखंडी भाषा छत्तीसगढ़ी भाषा इतिहास लोक भाषा में आम आदमी विचार विनिमय करते थे।प्रशासनिक दृष्टिकोण से विचार किया गया की विभिन्न क्षेत्रों के विभिन्न भाषा के बीच कोई ऐसी भाषा विकसित की जाए जो सभी के समझ में आवे। इस योजना को कार्य रूप देने के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज में हिंदी विभाग खोला गया और पाठ्यक्रम निर्धारित करने के लिए सदा सुखलाल इंशा अल्लाह खान लालू जी लाल को नियुक्त किया गया।उन दोनों हिंदी का कोई भी साहित्य उपलब्ध नहीं था इसलिए संस्कृत और हिंदी के साथ-साथ अन्य भाषाओं को अनुवादित करके रूपांतरण रूप में लोक संस्कृत के पुत्र देकर पाठ्य पुस्तक के आदर्श अनुक्रिया बनाने के लिए प्रयास किया गया और यह देखा गया की हिंदी के विकास के मूल में लोक संस्कृति के समृद्ध परंपरा के महत्वपूर्ण योगदान का पुट उनके हों। समृद्ध परंपरा के महत्वपूर्ण योगदान से हिंदी के संस्कृति अनेकता में एकता का नायाब उदाहरण बन गया।भाषा संस्कृत की संवाहक है लोक भाषा की उपेक्षा से हिंदी अपना मूल संस्कार से काटी जा रही है आज हिंदी भारतीय संस्कृति से कट के इंग्लिश संस्कृत की ओर अग्रसर हो रही है। भोजपुरी सहित अन्य लोक भाषा हिंदी साहित्य की जड़ है। हिंदी के विकास में भोजपुरी के योगदान पर निगाह दौड़दौड़ाया जाए तो आचार्य रामचंद्र शुक्लका अब तक के साहित्य के इतिहास के 1850 के आसपास के हिंदी गद्य के विकास में बड़ा योगदान रहा है। भारतेंदु हरिश्चंद्र हिंदी गद्य के जनक माने जाते हैं। जबकि वह भी भोजपुरी क्षेत्र बनारस के रहने वाले हैं इसी प्रकार अनेक साहित्यकार भोजपुरी क्षेत्र के रहने वाले थे इसलिए कहा जा सकता है कि भोजपुरी और हिंदी का संबंध बहुत ही प्रगाढ़ है। और उन्हें साहित्यकारों ने भोजपुरी भाषा ऑन सहित हिंदी हेतु महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं।नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी का हिंदी साहित्य के विकास और संस्कारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बाबू श्यामसुंदर दास बाबू कृष्ण दास आदि साहित्यकार हिंदी साहित्य और देवनागरी निपरित के विकास के लिए नागरी प्रचारिप्रचारिणी सभा के माध्यम से हिंदी का बहुत विकास किया है। भारत में हिंदी साहित्य का यह केंद्र बहुत ही महत्वपूर्ण रहा है यही से सन 1900 में बनारस से ही सरस्वती नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया गया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस पत्रिका का संपादन 1903 में किया। हिंदी साहित्य के विकास की यात्रा भले ही भारतेंदु कल में शुरू हुआ परंतु संस्कार द्विवेदी काल में मिला।
हिंदी साहित्य के विकास के केंद्र में वाराणसी का प्रमुख स्थान है। साहित्यकार अपने आसपास की संस्कृति के माध्यम से सृजन करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य सृजन में भोजपुरी का महत्वपूर्ण रोल रहा है।
कहा जाता है कि सन 1834 के आसपास भोजपुरी क्षेत्र से अंग्रेज और मजदूरों के बीच एक एग्रीमेंट हुआ इसके तहत फिजी मॉरीशस सूरीनाम तीरंदर दक्षिण अफ्रीका गौना आदि देशों में मजदूर गए जिन्हें गिरमिटिया मजदूर के नाम से जाना गया वे लोग वहां विभिन्न देशों के भाषा और संस्कृत के साथ अपनी संस्कृति साथ लेकर गए। वर्तमान समय में कई देशों में गिरमिटिया मजदूरों ने वहां के देश पर की सत्ता पर अपना आधिपत्य जमा लिया और भारत के विकास में सहयोग देने का उन्हें गौरव मिला। भोजपुरी भाषी मजदूर के विदेश में अप्रवासीय भारती के रूप में रहने के करण भोजपुरी का तो विकास हुआ ही साथ ही साथ उन देशों में हिंदी का भी विकास चरम स्तर पर पहुंचा।
हिंदी लोकप्रिय होने लगी दुनिया में हिंदी का वर्चस्व बढ़ने लगा एक समय ऐसा आया कि हिंदी पूरे विश्व में तीसरे नंबर पर जानी जाने लगी।
यद्यपि भारत में राजनीतिक दबाव में पड़कर हिंदी राजभाषा के रूप में ही मान्यता कर पाई है हिंदी के ऊपर अंग्रेजी का वर्चस्व रहा है उन्हें वर्चस्व के कारण आज भी हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई आजादी के उपरांत सन 1950 में संविधान में जो संशोधन हुआ उसमें हिंदी को राजभाषा के रूप में माना गया। उन दिनों अंग्रेजी भाषाओं ने यह शर्त रख की जब हिंदी सक्षम हो जाएगी तब अंग्रेजी को हटा दिया जाएगा उसके लिए जो पदाधिकारी नियुक्त किए गए अथवा साहित्यकार वे लोग हिंदी को सक्षम बनाने की जगह पर हिंदी के साथ खेल खेल और आज भी अंग्रेजी भारत में अनेक क्षेत्रों में हावी है। जनमानस का मानना है कि हिंदी विश्व स्तर पर दूसरी मान्यता प्राप्त भाषा हो गई है संयुक्त राष्ट्र संघ में भी हिंदी को मान्यता दी गई है परंतु भारत में अभी भी हिंदी भाषा अंग्रेजी बड़ी लोगों की नजर में सक्षम भाषा नहीं बन पाई है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि हिंदी सक्षम है अथवा अक्षम है प्रश्न इसका नहीं उठाता बल्कि प्रश्न यह होता है की अंग्रेजी वाले लोगों के नियत में हॉट है लोग चाहते ही नहीं की हिंदी पूर्ण रूप से कामकाज की भाषा बन सके जिसकी वजह से वे लोग कुतर्क गधा करते हैं और अंग्रेजी को कायम रखना चाहते हैं ताकि सत्ता पर वहीं लोग अपना वर्चस्व स्थापित रख सकें। कुछ इसी तरह भोजपुरी और हिंदी के लिए समस्या ऊतकों के आधार पर चल रही है। वर्तमान समय में हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ के भाषा बनने की लड़ाई में लड़ रही है भोजपुरी की लोकगीत गवनई के यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में स्वीकार कर लिया गया है जिसके कारण लोग हिंदी और भोजपुरी में भी भेद उठाना शुरू कर दिए हैं और नहीं हिंदी को मजबूत होने दे रहे हैं और ना ही भोजपुरी को। जिस प्रकार भारत माता के देश में कल्पना के रूप में संपूर्ण भारत के विकास के लिए हिंदी भाषा को सपना के रूप में देखा जाता है इस तरह हमारी सास जैसे देश में भोजपुरी को मैं के रूप में माना जाता है विकास के रूप में देखा जाता है। हिंदी और भोजपुरी एक दूसरे की पूरक है इन दोनों भाषाओं को विश्व स्तर पर मान्यता देकर भारत की छवि को निखारने की आवश्यकता है।
-सुख मंगल सिंह
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