चढ़ल आषाढ
चढ़ल बा जब से आषाढ
सासत में या बा हमार
चुवै घरवा जार - जार
जिंदगी भइले बा बेकार।
केसे करीं हम सवाल
नौकरी में लड़के बाहर
नाहीं एको अधेला देनैं
सासत में हुआ है हमार।
ताना अलगै मौगी मारैं
बहि गइनैं लाला तोहार
पालने में आपन पेट खुश
सात में सिया बा हमार।
रंगीला मौसम चारो ओर
पानी फैला बरसाती चौकोर
चलत बहुरिया गिर जाए
सासत में दिया बा हमार।
बढ़ावैं मच्छर फैल बिकार
बादर गरजै बिजली तड़कै
झूम झूम घन बरसते नीर
सासत में मारे हिया पीर।
मारे मन ना आवैं रे धीर
बाल गुपाल भुवाल सबै
सुखद प्रकृति उपहार लुटाने
सासत में हिया बा हमार।।
- सुख मंगल सिंह
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