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Dr. Srimati Tara Singh
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दक्ष प्रजापति पुत्र और नारद

 

दक्ष प्रजापति पुत्र और नारद

ईश शक्ति संचार से  प्रजापति दक्ष हुआ बलवान

10000 पुत्र उत्पन्न किया उनके आचरण महान। 
पंचजन की पुत्री असिक्नी बहुत ही गदगद हुई
देख सुंदर-सुंदर अति उत्तम पुत्रों का अपने ज्ञान।। 

सिंधु नदी तटपे नारायण _सर तीर्थ एक विद्यमान।
जहां पर बड़े-बड़े सिद्ध मनी पुरुष करते थे विश्राम। 
प्रजापति दक्ष के पुत्रों ने वहीं किया तपस्या भारी
पिता की आज्ञा में बध भागवत धर्म की रखवाली।। 

उन्हें देख नारद जी उनके समीप आ कर यूं बोला
तुम लोगों ने अभी तक पृथ्वी का अन्य नहीं देखा। 
सृष्टि की रचना की सोच रहे अपनी आंखें खोला
जब तक उसको देख नहीं लोगे सृष्टि कैसे  बोला।। 

वहां ऐसी नदी बहती रहती जो दोनों तरफ चलती 
वहाँ यह कैसा घर जो 25 पदार्थ से भरा पूरा रहता। 
छुरे और बज्र से बने चक्र अपने आप घूमता रहता
वहां एक ऐसा पुरुष जो व्यभिचारिणी पति कहलाता।। 


एक ऐसा घर जिससे निकलने का रास्ता नहीं मिलता
ऐसी स्त्री जो बहुरूपिणी देखने में दिखती है रहती। 
सोचो शायद तुम लोग अपने सर्वज्ञ पिता की आज्ञा
के  पालन करते हुए ही, सृष्टि कैसे कर सकते, होगा।। 

नारद मुनि के बचन सुन दक्ष पुत्रों ने किया विचार
स्वयं ज्ञान चक्षुओं से वे सभी हो गए बैतरणी पार। 
तब और ज्ञान का बल उनके भीतर उमड़ रहा था
प्रजापति दक्ष पिता का हाथ जो उनके सर पड़ा था।। 

यह लिंग शरीर है जिसे साधारणत: है जीव कहा जाता
पृथ्वी है जिसको आत्मा का अनाज बंधन कह लाता। 
जिसका विनाश देखे बिना मोक्ष कर्म मिथ्या कहलाता
ईश्वर एक अनादि उसी का आश्रय सत्कर्म कहा जाता।। 

परमात्मा का साक्षात्कार के बिना ये कर्म अधूरा होता
जैसे मनुष्य बिलरूप पाताल में घुस पुन: लौट नहीं पाता।
अंतर ज्योति स्वरूप परमात्मा को जाने बिना हमको 
बिनासवान स्वर्ग आदि फल कर्मों को करने के लाभ क्या।। 

बुद्धि  बहुरूपिणी सत रज आदि गुणों को धारण करती
विपरीत गुणों के कारण बहरूपी  व्यभिचारी कहलाती। 
उल्टा बुद्धि हो जाने पर कुलटा स्त्री के समान बन जाती
उसके संग से जीव रूप पुरुष का ऐश्वर्या नष्ट हो जाता। । 

विभिन्न गतिया चलो को जाने बिना विवेक रहित कहलाता
विवेक रहित कर्मों के करने से सिद्ध नहीं मिलने वाली। 
माया ही तो दोनों और बहने वाली एक नदी कहलाती है
जो सृष्टि भी रचती है और उसका विनाश भी कर जाती है।। 
इससे निकलने के लिए तपस्या विद्या आज का सहारा लेते
क्रोध अहंकार आदि का सहारा ही वेग बढ़ा देने वाले होते। 
25 तत्वों से मिलकर ही एक अद्भुद हर घर बना होता है
पुरुष उसका आश्चर्य मय आश्रय वालाे में रहने वाला है।। 

भगवान का स्वरूप बताने वाला शास्त्र ही सच्चा रास्ता
बतलाने वाला हंस के समान निश्चित रुप में विवेकी है। 
जो जड़ और चेतन को अलग-अलग करके दिखला देता 
हंस रुप आश्रय बिना बहर मुख कर्म  निराधार कहलाता।। 

कॉल ही वह चक्र है जो निरंतर घूमता चलता रहता 
उसकी धार छुरे और बज्र के समान तीखी दिखती । 
औ संपूर्ण जगत लोगों को अपनी ओर खींचती रहती
यह स्वतंत्र रुप से चलता है इसे कोई रोक नहीं पाता।। 

शास्त्र ही पिता कहलाता दूसरा जन्म शास्त्र द्वारा होता
उसका आदेश कर्मों में लगाना ही निवृत्त कहलाता।। 
कर्मों से निवृत्त होने की आज्ञा बिनु मोक्ष नहीं होता
विषयों में लिप्त मनुष्य को ईश्वर में विश्वास कहाँ होता।। 

- सुख मंगल सिंह






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