"धरा - धर्म को समझाती"
इस ब्रह्मावर्त में एक क्षण भी,
ठहरना कहीं से उचित नहीं,
धर्म और सत्य का यहां पर,
है निवास स्थान धर्म को उसने
विधि विधान से उन्हें सुनाया।।
जब पृथ्वी ने धर्म से बोली,
सब कुछ धर्म तुम स्वयं जानते ।
जिस भगवान के बल पर तुम,
इस संसार को सुख पहुंचाते हो।
उन्हीं के प्रताप से तुम भी
इन चारों चरणों से युक्त हो।।
उनतालिस प्राकृतिक गुन से,
श्री कृष्ण लोक में लीला की।
शरणागत वत्सल में यह गुण,
गौरव सहित ही निवास करता।।
जिनमें सत्य - अपवित्र व दया,
छमा, त्याग, संतोष, सरलता,
सम, दम, तप, क्षमता औे ज्ञान,
उपरारि, तितिक्षा, शास्त्र विचार,
वैराग्य, ऐश्वर्या, वीरता, तेज, बल,
स्मृति,कौशल, कांति, धैर्य, विनम्र,
स्वतंत्रता, कोमलता, साहस, शील,
स्थिरता ,उत्साह, निर्भीक, धैर्य,
सौभाग्य, गंभीरता, कीर्ति, व
गौरव और निरहंकारिता होती है।।
भगवान मुझे भगिनी जो,
को छोड़कर द्वारिका चले गए।
मुझे अपने सौभाग्य पर,
बहुत बड़ा गर्व हो गया था।
इसीलिए दुनिया में उन्होंने,
हमें यह दंड दिया हुआ है।।
जिनके प्रेम में चरण कमल की,
शुक्ला बहुत अच्छा या में सेवन,
लक्ष्मी जी सदा करती रहती है।
अपनी निवास स्थान कमल वत,
आप परित्याग कर सेवन करती।।
धर्म तुम भी अपनी इन चरणों,
के जाने से बहुत कुढ़ रहे हो!
श्याम सुंदर विग्रह से प्रकट हुए,
यदु वंश में शिरोमणि आए !
विधि पूर्वक उन्हीं का ध्यान करो,
स्वयं स्वस्थ होकर नाम जपो।।
अपने ही धुन तुम उनका नित घ्यान,
परम स्वतंत्र श्री कृष्ण को प्रणाम करो।
यज्ञों के द्वारा उनकी पूजा होती है,
यज्ञ करने वालों का कल्याण करते हैं।
वायु की भांति चराचर जीव के भीतर,
बाहर, मनोकामना पूर्ण करने वाले हैं।
- सुख मंगल सिंह
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