एक दिन उठूँगा !
धरती से आकाश तारे
नहीं देख पाऊँगा
मालूम होता मुझको यह
ठीक नहीं हो पाऊँगा
अपने पाँव से कही पर
चल भी नहीं पाऊँगा
मुझे लगता है मित्रों से
अब मिल नहीं पाऊंगा
इस अपनी हालत का ब्यौरा
उन्हें कैसे बताऊं
मालूम होता सदा मुझे
ठीक नहीं हो पाऊँगा
पिछले जन्म का लेखा-जोखा
क्या उसे दे पाऊँगा
धरती पर पाँव नहीं पड़ा
ईश्वर मिल पाऊँगा
अपनी गौरव गाथा को
किस-किससे बताऊंगा
हाँ हां एक दिन उठूँगा
लेखनी को फिर उठाऊंगा
सभ्यता-संस्कृति समर्पण
सुन्दरता का दर्पण
और धरा से गगन तक
दीप ज्योति जलाऊंगा
लिखूगा पढ़ूँगा सुनाऊँगा
सनातनी इतिहास !
प्रमस्तिष्क ज्ञान ध्यान से
कागज पर उकेरूंगा |
- सुखमंगल सिंह
--Sukhmangal Singh
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