Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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हिंदी राष्ट्र भाषा के पथ पर अग्रसर

 
हिंदी राष्ट्र भाषा के पथ पर  अग्रसर !  
              हिंदी ने भारतीय भाषाओं की दीवार को तोड़ने का काम किया है।जबकि शिक्षा के प्रारंभिक चरण से ही हिंदी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। हिंदी के नाम पर  प्रतियोगिताएं होती हैं|  हिंदी के   प्रयोग का मूल्यांकन होता है |  पुरस्कार दिए जाते हैं, परंतु हिंदी को कोई अपना बनाता  नहीं। यही कारण है कि बच्चों की सोच की क्षमता लगभग लगभग समाप्त होती जा रही है बच्चे केवल रटते  रहते हुए अंग्रेजी ज्ञान को पढ़ते आ रहे हैं। हिंदी अपनों के बीच ही बेगाने होती जा रही है। स्कूली शिक्षा मैं राज भाषा और व्यावहारिक हिंदी की स्तरीय अनिवार्यता की कमी, हिंदी में आत्मविश्वास की कमी का कारण बनती  जा रहा है। जिस हिंदी ने  हमें आजादी दिलाई|  एक दूसरे को जोड़े रखा|  उस हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलाने में हम सभी सफलता नहीं प्राप्त कर सके |  यह बहुत विचारणीय विषय है।
आज हिंदी सूर्य की किरणों की भांति सारे संसार को प्रकाशित कर रही है। हिंदी सर्वगुण संपन्न आनंददायक - सुखदायक भाषा है।
हम सूरज तू चंदा,
मेरा कार्य प्रकाश फैलाना।
अंधेरा से कहते जाओ,
हो रहा कहां है नंगा।
मैं सूरज तू चंदा।
गंगा नहावन से सुख ,
मुझ में डूबे हो जा  चंगा ।
रोम रोम आनंदित हो,
बहोरी विश्व साहित्य गंगा।
मैं सूरज तू चंदा।
 हिंदी भाषा स्वतंत्रता संग्राम में  प्रमुख हथियार थी , इसके माध्यम से अंग्रेजो के खिलाफ योजनाएं बनाई गई, समाचार पत्रों के माध्यम से जन-जन तक सूचनाएँ  पहुँचाई गई |  हिंदी को गौरव दिलाने में हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अहम  भूमिका निभाई | स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में महात्मा गांधी, बाल गंगा धर तिलक, सुभाष चंद्र बोस आदि प्रमुख महापुरुषों ने भाग लिया |  उन्होंने हिंदी का गौरव बनाए रखने के लिए अपना बहुमूल्य योगदान दिया।
               हिंदी जनता के हृदय संयोग की भाषा थी |  सम्मान पूर्वक बोली जाने वाली हिंदी एक प्रतिष्ठित भाषा है। आज हिंदी हिंदी के प्रति बच्चों में सोच की क्षमता लगभग समाप्त हो रही है|  केवल रतटे  हुए ज्ञान के माध्यम से घर के आस-पास देश काल को भीं नहीं जान पाते ,न हिंदी  तिथियां हमारी हैं, न दिन हमारा है, न महीना हमारा है, न ऋतुएँ  हैं, न गांव है, ना गांव के आस - पास के बिरवे  रहते हैं, ना उन बिराओं  पर अलग-अलग मौसम में तरह- तरह की बोली बोलने वाले पक्षी रहते हैं | आज अगर कुछ है तो केवल मम्मी पापा और मेज- कुर्सी है| 
                    हिंदी के बारे में अगर सारे आंकडे  पर नजर रखी जाए तो आंकड़े यह बताते हैं कि हिंदी विश्व में सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषा है|  यह विश्व के सैकड़ों विश्व विद्यालयों में पढ़ाई जा रही है। हिंदी भाषा के श्रेष्ठ हो जाने से अन्य भारतीय भाषाओं पर उसके प्राण तत्व पर कोई बोझ पड़ने वाला नहीं है |  तमिल जैसी प्राचीन और समृद्ध भाषा को अपनी तुलना करवानी हो तो वह संस्कृत के साथ तुलना करवा सकती है। किसी भी देश की अपनी एक राष्ट्र भाषा होनी चाहिए। राष्ट्र भाषा के अभाव में किसी भी देश को हानि होती है। सन 18 53 फरवरी 2, को ब्रिटिश संसद के एक व्याख्यान में जिसमें कहा गया कि ' मैंने भारत की ओर छोर  का भ्रमण किया है और मैंने एक भी आदमी नहीं पाया जो चोर हो ! इस देश में मैंने ऐसी समृद्धि ऐसे सक्षम व्यक्ति तथा ऐसी प्रतिभा देखी है कि मैं नहीं समझता कि इस देश को विजित  (जीत) लेंगे | जब तक की हम इसके सांस्कृतिक एवं नैतिक मेरु दंड को तोड़ नहीं देते' इसलिए मैं यह प्रस्ताव करता हूं कि हम भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति एवं संस्कृत को बदल दें, क्योंकि यदि भारतीय  यह सोच लेंगे कि जो विदेशी और अंग्रेजी में है वह उनके आचार- विचार से अच्छा एवं बेहतर हैं तो वे अपना आत्मसम्मान एवं संस्कृत को छोड़ देंगे तथा वे एक पराधीन कौन बन जाएंगे |  जो हमारी चाहत है|  मैकाले की शिक्षा नीति भारतीयों को उनकी भाषा से पृथक कर वैचारी बनाने की है  जिसे हम नहीं समझ सके।
मैकाले ने खुद अपने होम सेक्रेटरी को पत्र लिखा कि 'मैं नहीं कह सकता कि भारत राजनीतिक रूप से आपके अधीन रह पाएगा, लेकिन इतना मैं अवश्य करके जा रहा हूं कि यह देश राजनीतिक स्वतंत्रता पा लेने के बाद भी अंग्रेजी मानसिकता अंग्रेजी सभ्यता और अंग्रेजी भाषा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकेगा | उसका यह कथन अक्षरसः  से सिद्ध हो रहा है|  आज भी हम अंग्रेजी मानसिकता से मुक्त नहीं हो सके।
                  कोई भी देश जैसे जर्मन, जापान, रूस, इजराइल, फ्रांस या अन्य कई विकसित देशों के प्रतिनिधि मंडल जब किसी दुसरे देश के  राज्य की यात्रा पर जाते हैं तो वे अपने साथ डूभाष्ये  को  लेकर जाते हैं क्यों कि उनकी अपनी राष्ट्र भाषा होती है ,परंतु भारत की अपनी राष्ट्र भाषा नहीं है। ऐसी स्थिति में जब हमारे कोई मंत्री दूसरे देश में जाता है तो उन्हें हिंदी में बात करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। जबकि भाषा के प्रश्न को गंभीरता से लेते हुए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एम एन वेंकटचलैया और न्यायमूर्ति एस मोहन की तत्कालीन खण्ड पीठ ने कहा था कि प्रारंभिक  स्तर पर बच्चों को शिक्षा केवल मातृ  भाषा में ही दी जानी चाहिए |  मातृ  भाषा में दी गई शिक्षा संस्कृति और परंपराओं पर गर्व करना सिखाती है।कर्नाटक सरकार ने उच्चतम न्यायालय के आदेश को स्वीकार कर एक ऐतिहासिक और साहसिक कार्य किया। जिसका अंग्रेजी मानसिकता के अभिभावकों ने ज़ोरदार विरोध किया था। परंतु दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण विरोधी मानसिकता वालों की एक न चली।
                       भारत की वर्तमान सरकार नई शिक्षा नीति में बदलाव के साथ मातृ  भाषा पढ़ाए जाने पर जोर दिया है।
भारत सरकार से जुड़े अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ साथ कुछ हद तक नागरिकों की हिंदी के प्रति नीरस मानसिकता भी उत्तर दाई है। हमारे देश में नागरिकों और कर्मचारियों की एक बड़ी तादाद है जो स्वदेश की भावना को व राज भाषा के महत्व को समझ नहीं पाता , भाषण व संस्कृत के ज्ञान व समझ में कमी के चलते बे वजह के मोह ने हिंदी के प्रति हम समर्पित नहीं हो पाते।
भाषा की बात करें तो अपनी भाषा में अपने - अपने निवासियों का लगाओ होना चाहिए। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जिस समय जर्मनी के अधीन फ्रांस था, उसी समय जर्मनी की महारानी एक  स्कूल में गई , वहां जाकर जर्मनी के राष्ट्रगान सुनाने के लिए बच्चों से कहा।
उस स्कूल की एकमात्र एक ही बच्ची  जर्मन भाषा में राष्ट्र गान किया। राष्ट्रगान को सुनकर महारानी ने उस बच्ची से कहा- कुछ मांगो! वह बच्ची महारानी की बात सुनकर खुश होकर तत्काल कहा कि - हमारी शिक्षा का माध्यम फ्रेंच बना दीजिए। 
इसे कहते हैं अपनी भाषा के प्रति लगाव, अनुराग और भाषा के प्रति प्रेम।
एक घटना सोवियत रूस की है हमें उससे सीख लेनी चाहिए जिस समय भारत देश गणतंत्र हुआ उस समय अंतरराष्ट्रीय संबंधों के कारण एक भारतीय राजनयिक बनाकर सोवियत रूस भेजा गया। उसने वहां जाकर कार्यभार ग्रहण करते समय अंग्रेजी भाषा में अपना लिखा  पत्र प्रस्तुत किया ।
सोवियत रूस सरकार  में भारत के राजनयिक के पत्र को अस्वीकार करते हुए कहा, याद  दिलाया कि अंग्रेजी में पत्र उसी गुलामी का प्रतीक है। फिर किसी गुलाम देश से अंतरराष्ट्रीय संबंध स्थापित करने का कोई प्रश्न नहीं नहीं बनता। भाषा के प्रश्न पर सोवियत रूस की फटकार भारतवर्ष के 70 वर्षों के अंतराल में भी परिवर्तन में सोच का नया पन ना आना, हमारी हिंदी के प्रति उदासीनता पर करारा प्रहार है।
हमें मात्र कौरवी ना समझें,
दिल्ली हरियाणा क्षेत्रीय बोली ।
आठवीं सदी से मैं आई
सरहपा के मुख पर छाई।
संस्कृत में ही मै समाई,
बहिना संस्कृत की भाई।
बाबर नामा भी करे बड़ाई
कौरवी हिन्दुस्तानी कहाई।
खालिकबारी खुसरो लिखे,
कौरवी को  वह हिंदवी कहे।
वह भी एक समय था जब हिंदी अर्थात कड़ी बोली हरियाणा और दिल्ली की क्षेत्रीय बोली तक ही सीमित थी | उसी बोली को कौरवी कहा गया | भाषा का अपना महत्त्व होता है | सभी देश की एक अपनी राष्ट्र भाषा का होना अनिवार्य है | 
जबकि भाषा के महत्व को समझते हुए ऑक्सफोर्ड में शब्दकोश में हिंदी के शब्द लिए जा रहे हैं। हिंदी का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर परीक्षाएं हो रही हैं। हिंदी का विस्तार पूरे विश्व में हो रहा है। जबकि आज तक के इतिहास में भारत के मात्र 2 प्रधानमंत्री माननीय अटल बिहारी बाजपेई और नरेंद्र मोदी ही ऐसे प्रधानमंत्री हुए जिन्होंने विशेष अवसरों पर संयुक्त राष्ट्र संघ को हिंदी में संबोधित किया और भारत की हिंदी का मान बढ़ाया। वर्तमान समय में यू ट्यूब, व्हाट्स एप, मैसेज, लिंकडन और फेसबुक आ दि पर हिंदी का प्रयोग आश्चर्यजनक रूप से बढ़ रहा है।
विश्वास दिल में रखना कोशिशें ही काम आएंगी ,
टूटे हुए हर दिल को हिंदी ही फिर जोड़ पाएगी | 
महात्मा गांधी जी ने सन 1910 में कहा था कि ' हिंदुस्तान को अगर सचमुच राष्ट्र बनाना है तो राष्ट्रभाषा हिंदी ही हो सकती है'। स्वतंत्रता दिलाने में हिंदी ने पूरे देश को एक कड़ी में पिरोया और लोगों को इकट्ठा करने का कार्य किया । हिंदी में ही सूचनाएं भेजी गई सूचनाओं का आदान-पदान हिंदी में ही होता रहा।
बारूद थी , आरी थी ,कुल्हाड़ी लिए लोग मगर ,
जंगलों से चलकर शिकार करते हुए आ रही | 
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जी राष्ट्रभाषा को राष्ट्रीयता का स्रोत मानते थे। उन्होंने कहा कि 'कोई विदेशी भाषा हमारे देश की रक्षा नहीं कर सकती राष्ट्र के विकास के लिए अपनी भाषा अनिवार्य है'।  भाषाओं का आश, उनके शब्दों में हिंदी था। वे हिंदी के साथ अन्य सभी भाषाओं के व्यवहारिक बनाए जाने के पक्षधर थे।
भारत के दक्षिण के राज्य जहां हिंदी का विरोध होता था आज उन राज्यों में हिंदी प्रवेश कर गई है। हिंदी अपनी आंतरिक ऊर्जा से सरलता, सहायता बोधगम्यता और समन्वय की भावना के कारण अनेकानेक विरोध सहते हुए भी आगे बढ़ रही है। हिंदी की अनिवार्यता पर गौर करें तो  जिन देशों के लोग भारत से व्यापार संबंध रखना चाहते हैं उनको हिंदी जानना आवश्यक है। हिंदी उनके लिए अनिवार्य हो गई है।
देवनागरी लिपि के समान सरल जल्दी सीखने योग्य और तैयार लिपि दूसरी कोई है ही नहीं। जो संपूर्णता और ध्वनात्मकता हिंदी में है । देवनागरी लिपि में है । वैसी क्षमता उर्दू और रोमन में भी नहीं है।
भाषा का कोई धर्म - पंथ नहीं होता ।भाषा किसी की प्रतिलिपि नहीं होती ।भाषा संवाद और संचार का माध्यम है । जहां तक स्वयं भाषा के स्थापत्य की बात है अपनी जन भाषा के सम्मान का प्रश्न है तो अपने देश की एक राष्ट्रीय भाषा होनी ही चाहिए।
जीने की ना दी राह तो जीवन की क्यों दिया ,
जीने के नाम पर शर्मिंदा क्यों फिर किया | 
सागर में जलती पर आश अभी बाकी मुझमे ,
इतनी सुख सम्पदा  डगर पर भटकने दिया | 
हिंदी की सहज भाषा ही अपने लकी लेपन के कारण अपने आयाम का विस्तार कर दी जा रही है। हिंदी की अनिवार्यता से राष्ट्र की अखंडता परिभाषित हो सकती है। यदि हमें हिंदी के गौरव की पुनर्स्थापना करना है तो देश को भाषाई आधार पर एकरूपता मैं रंग ना होगा हमें सोच बदलनी होगी तभी प्रगट का पथ प्रदर्शित होगा। हिंदी को हिंदू और उर्दू को मुसलमान के चश्मे से दूर रखना होगा इन्हीं खोखले आधारों से भाषा का युद्ध और विरोध का जन्म होता है। हिंदी केवल एक भाषा नहीं है बल्कि संवाद का सर्वोच्च शिखर भी आज हिंदुस्तान में हिंदी ही है। भारत को उच्च शिखर पर स्थापित करने के लिए भारत की मेधा के बच्चों को हिंदी या मातृभाषा में दक्ष रखना ही होगा।
हिंदी के संवर्धन और विकास के लिए
प्रथम ऐतिहासिक  संस्था 18 सौ ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज  नाम से कोलकाता में स्थापित हुआ। स्थापना भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली द्वारा की गई थी | इसका प्राचार्य सबसे पहले जॉन गिलक्रिस्ट को बनाया गया | उन्होंने देवनागरी में 'हिंदी ' और फारसी लिपि में 'उर्दू' या 'हिन्दुस्तानी '  का अध्ययन शुरू करवाया | उस समय हिंदी की पाठ्य   पूर्ती के लिए प्राचार्य ने कई लेखकों से पुस्तकें लिखवाई | उन लेखकों में लल्लू लाल ,सदल  मिश्र इंशाअल्लाह खान ,मुंशी सदा सुखलाल ' नियाज'का नाम आता है | लल्लूलाल और सदल मिश्र को हिंदी पढ़ाने के लिए फोर्टविलियम कालेज में शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया | इनके अलावा अध्यापकों में से ईश्वरचंद विद्यासागर ,राम राय बासु ,तरनतारन मिश्र ,मृतुन्जय विद्यालंकार भी थे जो अन्य भाषाओं की शिक्षा देते थे | कुछ और लेखकों ने मिलकर अनुवाद और लेखन का कार्य किया जिससे पुस्तकों कीकमी को दूर किया गया | 
हिंदी के विकास और सम्बर्धन के लिए दूसरी संथा १६ जुलाई १८८३ को नागरी प्रचारिणी सभा के नाम से वाराणसी में स्थापित हुई | जिसकी स्थापनाक्वींस कालेज के  वववीं के तीन छात्र - श्यामसुंदर दास ,शिवकुमार सिंह और राम नारायण मिश्र ने की | इसके संस्थापक अध्यक्ष  राम  कृष्ण दास बनाये गए  और सात सदस्य हुये | आगे चलकर सम्पूर्ण भारत के अलग अलग क्षेत्रों में जैसे प्रयाग,चेन्नई ,गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद ,हिंदी विद्यापीठ देवधर झारखंड की स्थापना १९२९ में हुई | उड़ीसा राष्ट्र भाषा परिषद पूरी ,केरल हिंदी प्रचार सभा तिरुवनंतपुरम सं १९३४ में ,राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा १९३६ में गांधी और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की प्रेरणा से ,महाराष्ट्र सभा पुणे की स्थापना १९३७ में काका कालेकर की अध्यक्षता में,चौदहवीं सौराष्ट्र हिंदी प्रचार समिति राजकोट ,प्रारम्भ में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की एक समिति के रूप में १९३७ में उन दिनों उसे काठियावाड़ राष्ट्र भाषा प्रचार नामक संस्था द्वारा चलाया जा रहा था | बम्बई हिंदी विद्यापीठ की स्थापना १९३८ में,हिदुस्तान प्रचार सभा मुंबई १९३८ में गांधी की प्रेरणा से ,असम राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की स्थापना १९३८ में ,कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति बेंगलूर की स्थापना सं १९३९ में,मैसूर हिंदी प्रचार परिषद की स्थापना बेंगलुरु में १९४३ में , कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति बेंगलूरी में १९५३ में ,मणिपुर हिंदी परिषद इम्फाल की स्थापना नवयुवकों द्वारा १९५३ में ,साहित्य अकादमी दिल्ली की स्थापना १२ मार्च १९५४ को को की गई,केंद्रीय हिंदी संसथान आगरा की स्थापना १९६१ में अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ दिल्ली की स्थापना १९६४ में ,उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ की स्थापना उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा १९७६ में और हिंदी अकादमी दिल्ली की स्थापना १९८१ में दिल्ली सरकार द्वारा स्वायत्तशासी संस्था के रूप में हुई |
देखे सबके बेम और तोपें ,
फिर भी लड़ते रहती हूँ !
गाँव के युवकों के सोचा था ,
मुझसे उनकी भलाई है ,
बारूदों पर घर है जिनका 
वही मसलते मिलते हैं !
शहर का मौसम बदलेगा ,
मन की मंगल कहता है | 
भारतीयों के ह्रदय में रचने बसने निवास करने वाली भाषा हिंदी महापुरुषों का याद कराते रहती है और राष्ट्र भाषा बनने के लिए किसी महापुरुष की खोज में आशान्वित है  !
-सुख मंगल सिंह ,
   अवध निवासी 

Sukhmangal Singh

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