Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

हिन्दी साहित्य आजकल

 

हिन्दी साहित्य आजकल


साहित्य की समाज के प्रश्नों को लेकर लिखा जाता है वह समाज साहित्य में अनुपस्थित सा है। समाज के अनुपस्थित होने का अर्थ यह है कि समाज की दृष्टि व विचार था साहित्य की दिशा अलग-अलग हो गई है। साहित्य का मूल प्रयोजन लोकमंगल के लिए होता है।

मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति है। उसके स्थान पर समाज की दुरावस्था व परिस्थिति का वर्णन मात्र हो रहा है। आजकल लेखन में संवेदना का अभाव है।

पाठक के बिना साहित्य लेखन निष्फल हो जाता है। पाठक की उदासीनता व साहित्य के प्रति उसकी उपेक्षा की ओर साहित्यकारका ध्यान रखना चाहिए।

मनीषियों का मानना है कि लोकप्रियता साहित्य की कसौटी नहीं हो सकती अर्थात नई धारा पाठक की आवश्यकता को एक प्रकार से निकलती है परंतु अगर पाठक ही नहीं रहेगा तब उसे लेखन की उपयोगिता क्या होगी पाठक की अनुपस्थित रहने पर साहित्य का भविष्य नहीं है।

जिस तरह से बिना नीव का भवन संभव नहीं है असंभव है। बिना जड़ का पेड़ पौधा नहीं होता है।

साहित्य का इतिहास परंपराओं के बिना छिन्नमूल होता है। साहित्य और समाज दोनों का अपनी परंपराओं से जुड़े रहना अनिवार्य है। साहित्य के पृष्ठ भविष्य को भी परिभाषित करते हैं।

साहित्य के सामने एक और विषम समस्या उपस्थित है चाहे वह गद्य हो अथवा पद्य उसमें इन दोनों एक विचित्र उधम मचा हुआ है।

कुछ लोग स्वतंत्र विचार के इस उसे श्रृंखला की विधाता हैं। ऐसे लोगों का संबंध इन तीन प्रकार में से किसी से भी मिल नहीं खाती है। वे लोग निरंकुश हैं और अपने मां के हैं परंतु देश प्रेम के परदे में अपने को छिपाए हुए हैं।

किसी के पास जाती सुधार का बाल है और किसी को समाज सेवा की लगन है कोई प्रचलित रूढ़ियों को मिटाने का दीवाना है और कोई हिंदुओं की वंशगत बुराइयों के दूर करने का कामुक है। कुछ ही स्कूल और कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों की दूसरी परियों की आलोचना करता है दूसरा स्त्री जांच की दुर्दशा का हृदय विधायक चित्र अंकितकरने में संलग्न रहता है।

याद बंधन को तोड़ना चाहता है कोई अछूतों के उठाने का प्रयत्न करता है परंतु कितने तो हिंसा पारायण है और कितने अर्थ लोलुप ,लॉलीपॉप हैं।

कुछ वृत्तियों के दास हैं कितने कु चरित्र हैं। कितने तो दुर्जन और दुष्ट प्रवृत्ति के हैं। इतनी आप पवित्र हृदय और लंपट हैं कितने नाम चाहते हैं कितने दाम चाहते हैं कितने अपने पत्र का प्रचार-प्रसार।

 दूसरी तरफ हमारी भाषा और हमारे साहित्य की उत्तरोत्तर श्री वृद्धि होती जा रही हैं | सुयोग्य विद्वान और सुयोग्य महानुभाव ,मनीषी विद्वान तन मन धन से हिन्दी साहित्य की वृद्धि के निमित्त लिख रहे हैं कारी कर रहे हैं |तब और प्रसन्नता होती है कि अब हमारे विद्वतजन स्थायी साहित्य के निर्माण में नवीनतम ,विधानों के साथ वैज्ञानिक ढंग से अपनी रुचि दिखाने लगे हैं | हिन्दी भाषा को गर्व हो एसे ग्रंथों का निर्माण होने लगा है |जिन्हें अन्य भाषा ग्रंथों के बीच रखने पर निःसंकोच भाव से मूल्यवान कहे जाते हैं |

हिंदी साहित्यकारों में -

  1. अखिलेश 
  2. अज्ञेय 
  3. अनवर सुहैल 
  4. अमरकान्त 
  5. अमृतलाल नागर 
  6. अरुण कमल 
  7. अरुण प्रकाश 
  8. अरुणा सीतेश 
  9. अलका सरावगी 
  10. अशोक चक्रधर 
  11. असगर वजाहत
  12. अयोध्या सिंह हरिऔध
  13. अजीत कुमार 
  14. आचार्य चतुरसेन 
  15. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 
  16. आचार्य रामलोचन सरन 
  17. आचार्य शिवपूजन सिंह 
  18. इलाचंद जोशी 
  19. इस्मत चुगताई  
  20. उदयशंकर भट्ट
  21. उदय प्रकाश 
  22. उपेन्द्रनाथ अश्क 
  23. उर्मिला शिरीष
  24. काशीनाथ सिंह
  25. जयशंकर प्रसाद 
  26. त्रिलोचन
  27.  देवकीनन्दन खत्री
  28. नामवर सिंह
  29. बेचन शर्मा उग्र
  30. फणीन्द्र नाथ रेणु
  31. बनारसी दास 
  32. बाबू गुलाब राय
  33. बनारसी दास 
  34. बाबू गुलाबराय
  35. मन्नू भंडारी
  36. महावीर प्रसाद द्विवेदी 
  37. मृणाल पाण्डे 
  38. मैथिलीशरण गुप्त
  39. राहुल सांकृत्यायन 
  40. रामवृक्ष   बेनीपुरी
  41. रघुवीर सहाय
  42. रवीन्द्र कालिया
  43. लक्ष्मीकान्त वर्मा 
  44. लवलीन 
  45. शरतचंद्र 
  46. शिवकुमार मिश्र 
  47. शरद जोशी 
  48. शैलेन्द्र चौहान
  49. श्रीलाल शुक्ल
  50. हजारी प्रसाद द्विवेदी
  51. हरिशंकर परसाई
  52. हृदयेश   आदि रचनाकारों ने हिन्दी साहित्य  के प्रचार -प्रसार में महत्वपूर्ण  भूमिका का पालन किया |

हिन्दी का विषय कोई भी हो उसके प्रस्तुतीकरण में किन किन बातों का ध्यान दिया जाये और इस ओर इंगित किया जाये उनमें अस्मिता,आस्था ,श्र्द्धा,शौर्य और विश्वास जैसे अनिवार्य विषय पर ध्यान दिलाना आवश्यक ह नहीं अनिवार्य हो गया है |

जिससे साहित्य समाज की आशाओं -आकांक्षाओं की पूर्ति कर सके |

हिन्दी -साहित्य में श्री अयोध्या -नरेश कृत 'रस - कुसुमाकर' हिन्दी - काव्य में 'नव -रस 'और 'काव्य- प्रभाकर ' प्रधान पुस्तक और प्रचलित मानी जाती हैं | जब कि ये पुस्तकें वास्तव मेँ सुव्यवस्थित ,वैज्ञानिक विवेचन की दृष्टि से संतोष प्रद नहीं सीध होती बताया गया है | एस अभाव की  में,सुंदर ग्रंथ के द्वारा अस्तुत्य पूर्ति करने हेतु श्री उपाध्याय जी को कितना भी साधुबाद दियाजाय वह थोड़ा ही है |उपाध्याय जी ने इस ग्रंथ - रत्न से कवि -काव्याचार्य -श्रेणी मेँ उच्चस्थान प्राप्त कर लिया वे अमर यश के भव्य भाजन हो गये हैं वह शाश्वत स्मरणीय हो चुके हैं |

हिन्दी साहित्य के इतिहास से यह स्पष्ट है की हिन्दी-साहित्य अलंकृत अथवा कला काल में रीति -ग्रन्थों की रचना की परिपाटी चल पड़ी थी |जो लगभग दो सौ वर्षों तक प्रबलता और प्रचुरता के साथ साहित्य को सुसज्जित करती रही | 

- सुख मंगल सिंह


Sukhmangal Singh


-- 

Sukhmangal Singh

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ