"खंडहर"
भूख ने व्याकुल किया,
खंडहर होता,
वह दिखता रहा।
पेट खाली कर कोई,
तन - मन से,
रंगोलियां सजाता रहा।
ख्वाब संजोए उम्र,
ओ ओर छोर,
मुस्कराता रहा।
पैदल चला मैं!
वह स्पलेंडर से,
देखते जाता रहा।
विद्यालय की द्यौढ़ी,
पर मैं जाकर,
शीश झुकाता रहा।
झोली खाली मन्नतों की,
वह दरबदर,
ठुकराया रहा।
अक्ल का ताला बंद,
गीत फलक पर,
लाता रहा।
कल की ओर निहारता,
बैठ कर रात दिन,
बिताता रहा।
समय पर सत्य ,
निहारता कौन नभ,
समय बिताता रहा।
अपने सपने नेक,
थे, रह - रह खुद
समझाता रहा।
धुंधली आंखें,
घोर अंधेरा पर,
मुस्कराता रहा।
अमावस की रात,
दीप बढ़-चढ़कर,
वह जलाता रहा।
- सुख मंगल सिंह
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