"लोकोक्तिमंगल "
अति संघर्ष करें जो कोई,
अनल प्रकट चंदन होई।
अधजल गगरी छलकत जाए,
बोलती बोली बिना विचार।
अपनी डफली अपना राग,
करता नहीं कोई नेक काम।
अपना वही जो आवे काम,
अथवा पी लें है सब जाम।
आदमी आदमी में है अंतर,
कोई हीरा - कोई कंकर।
अपनी छाछ कहे को खट्टी,
माता अपनी डायन अच्छी।
अपने मुख से बड़ा न कोय,
सब जग बड़ा है सोय।
अपने मुख से धन्ना सेठ,
मांगे नहीं निकलता भीख।
अस जो होती कातनहारी,
तो कस फिरती मारी मारी।
आगे नाथ न पाछें पगहा,
खाय - मोटा होय गधा!
जो जाने निज मरण है,
आवे सो किहि काज।
अब पछताए होंगे क्या,
चिड़िया चुग गई खेत।
अपने कर पग हनी कुल्हाड़ी,
ऋषि - संत संग करके रारि!
आरत के चित रहे न चेतू,
धैर्यवान में कस कलेशू !
आंखें देख मानिए, कानों सनी न मान,
आंखों देखे चेतना, कान करावे रारि!
आया है सो जाएगा, राजा रंक फकी,
फिरकी अपना अपनी, उधर देत पीर।
आधी छोड़ एक को धावै,
आधी पूरी दोऊ न पावै।
आधी तजी पूरी को जावे,
आधी पूरी दोऊ न पावे।
आंख नहीं पर काजर पारै,
दबे पांव से सबै बुलावै।
आधे गांव में मातम छाया,
आधा गांव फाग गाया।
अंधन में है कनवै राजा,
खाय मोटाय धम्मधूसर से।
अंधेरी नगरी बेबूझ राजा,
टका सेर भाजी टका सेर खाजा।
कसाई के हाथ से गाय छूटी,
बहाना दूज काटे खाए बोटी।
करा कराया सब गुन माटी,
नियत से खोट जो हौ घाती।
कमल नाल के तंतु सों ,
को बांधे गजराज!
कल का योगी कमर तक जटा,
मन ना रंगावै रंगावे तन कपड़ा।
करम प्रधान विश्व करि राखा,
जो जस करै सो तस फल चाखा।
- सुख मंगल सिंह
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