"महावीर प्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा के धनी विद्वान्"
भारत में अंग्रेजी शासन चल रहा था। अंग्रेजी राज स्थापित होने के कारण सन 1948 ई. में भारत में सबसे बड़ा राष्ट्रीय संग्राम हुआ। उस समय भारत में सामंतवाद चल रहा था। सामंत्वादी परंपरा में जिस समय अंग्रेजों का राज हुआ उस समय भारत के किसान अंग्रेजों से लड़ रहे थे। किसानों का अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया जाना किसानों के लिए घातक सिद्धू हुआ।
पहली से चल रही सामंतवाद की प्रथा ईर्ष्या भाव में किसानों प्रभात प्रभाव डाला इसकी वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था जीर्ण - शीर्ण हो गई।
उस काल में भारत अकाल, भुखमरी, अत्याचार, शोषण का शिकार हुआ। दरिद्र देवता का प्रयोग भाव गया। गलियों - कूंचों से कारुणिक क्रंदन और धनाभाव सुनने को आने लगा। दिवेदी जी ने देश की दुर्दशा - दुर्दमनीयता, का दृष्टांत चिंतन कर चित्रण किया। देश मेंभोजन का अभाव और अत्याचार के कारण जिस हाल में आज का अफगानी नागरिक जीवन जीने के लिए लड़ रहा है उसी तरह का कारुणिक क्रंदन चार दिशाओं से ही सुनाई पड़ता था।
महावीर प्रसाद जी भारत सहित पूरी एशिया को गुलामी से मुक्त होने की बात करते थे और अंग्रेजी शासन की आलोचना करते थे। यह कहते हैं कि -
'यूरोप के कुछ मदांध मनुष्य यह समझते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें एशिया के निवासियों पर आधिपत्य करने के लिए ही उनकी सृष्टि की है जिस एशिया ने राम, बुद्ध, कृष्ण, ईसा, कंफूसियास, रविंद्र नाथ और जगदीश चंद्र बसु जैसे लोगों को उत्पन्न किया उनसे दूसरे की गुलामी का ठेका ले कर नहीं रखा।'
महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने सन 1900 ई. से सन 1919 तक सरस्वती पत्रिका का संपादन किया। उन्होंने सन 1920 में सरस्वती पत्रिका के संपादक श्रेष्ठ से अपने को अलग कर लिया।पत्रिका के संपादक के समय उन्होंने हिंदी भाषा को परिमार्जित करने और उसे सुंदर रूप में प्रस्तुत करने का उद्योग किया।
अर्थाभाव के कारण इनकी शिक्षा दीक्षा समुचित नहीं हो सकी।नौकरी रेलवे में मिली दूरी अधिक होने के कारण छोड़कर मुंबई चला जाना पड़ा।वहां उन्होंने टेलीग्राम का कार्य सीखकर रेलवे में तार बाबू के पद पर कार्यरत हुए।स्वाभिमानी स्वभाव का होने के कारण अधिकारियों से इनकी अनबन हुआ करती थी जिसकी वजह से सन 1903 ई. में झांसी में रेलवे विभाग की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। नौकरी करने के साथ-साथ आपने अध्ययन का कार्य भी जारी रखा। उसी समय आपने गुजराती, मराठी और संस्कृत आदि भाषाओं का स्वयं अध्यन कर के ज्ञान प्राप्त किया।
आपका जन्म रायबरेली जनपद के दौलतपुर नाम ग्राम में सन 1864 ई. में हुआ था आपके पिता का नाम राम सहाय दुबे था जो कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार के थे।
सरस्वती पत्रिका के संपादन के पहले ₹200 प्रतिमाह के पगार पर रेलवे में नौकरी करते रहे।अंग्रेज अधिकारी के दुर्व्यवहार के कारण आपने नौकरी छोड़ दी और उसी समय सरस्वती पत्रिका रुपया 20/ प्रतिमाह, और रुपया 3/ डाक खर्च कुल 23 रुपया पर पत्रिका के काज का संपादन स्वीकार किया। किसी भी अन्य प्रलोभन के बिना वह सरस्वती का संपादन निर विवाद करते थे। पुणे दिनों सरस्वती पत्रिका में किसी लेख क/ कवि के लिए छपना बड़ी बात होती थी। पाठकों की संख्या में वृद्धि होती गई।
द्विवेदी जी ने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से स्वदेशी अपनाने की सलाह दिया करते थे जो इस रचना के माध्यम से सिद्ध होता है-
स्वदेशी वस्तु को स्वीकार कीजै/
विनय इतनी हमारी मान ली जय ।
शपथ करके विदेशी वस्त्र त्यागो/
न जाओ पास उसके दूर भागो।
प्रायः वे साहित्यकारों को विविध विषयों के ऊपर लिखने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। वह नवजागरण के पुरोधा वरिष्ठ कवि लेखक और निर्देशक भी थे। उन्होंने भारतीय समाज को दिन हींन दशा में पहुंचाने वाले ब्रिटिश शासन व्यवस्था पर भी जागरूक करने का काम किया। उस शासन प्रशासन के खिलाफ षड्यंत्र कारी व्यवस्था विरुद्ध आवाज उठाई। लिखा कि-
अंग्रेजो की पगार भारत से मिलती है, उनकी पेंशन भारत से ही दी जाती है। रेल आदि बनाने का काम का खर्च भारत बहन करता है। सूद का पैसा भारत देता है। भारत भुगतान करता है। इस प्रकार तरह-तरह के शोषण को उन्होंने उजागर किया। भारत में दोहन करने का काम अंग्रेजी शासन ने किया जैसे संप्रदाय वाद, लूटपाट, कपट, रंग भेद आदि।
सरस्वती पत्रिका के प्रबंधक चिंतामणि घोष का उन पर विशेष विश्वास था। पत्रिका का पूरा दायित्व बिना किसी दबाव के लिए उनको को सौंपा था।
आचार्य जी जिसका निर्वहन बड़े ही a मनो योग पूर्वक किया करते थे।उनकी अनुपम हिंदी सेवा के कारण 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ से दो दशकों को दिवेदी युग के रूप में मानयता प्रदान की गई।
सरस्वती पत्रिका में, अपने संपादन काल में, उन्होंने खड़ी बोली को महत्व दिया। जिन रचनाकार में कुछ परिवर्तन की आवश्यकता लगी उन्हें उन्होंने परिमार्जित करके प्रकाशित किया और जो रचनाएं उनके मिजाज में फिट नहीं बैठती उन्हें से बेझिझक लौटाने का कार्य किया। एक रचना प्रस्तुत है इसी से संबंधित -
लौटी रचना लेकर उदास,
ताकता हुआ है दिशाकाश
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संपादक के गुण यथाभ्यास
पास कीन नोचता हुआ घास
अज्ञात फेकता इधर उधर
भाव की चढ़ी पूजा उन पर।
उन दिनों सरस्वती पत्रिका में देश ही नहीं अपितु विदेशों से भी रचनाएं आती थी। जिनका संपादन महावीर प्रसाद जी रुपांतरित करके भी प्रकाशित किया करते थे। गद्दी और पद्य को अपने व्याकरण भाषा की शुद्धि के साथ अपने सांचे में धाकड़ प्रकाशित करने का काम क्या करते थे। कभी-कभी रचनाकार भी अपने आलेख को पहचान नहीं पाते थे अथवा पहचानने में समर्थ नहीं होता था। उन्हीं दिनों अमेरिका से भोला पांडे की एक रचना ' मेरा विदेशानुभव ' इन दिनों नगरी प्रचारणी सभा में आई। जिसको उन्होंने रुपांतरित करके
' नई दुनिया संबंधिनी राम कहानी ' नाम से प्रकाशित किया। उन दिनों आचार्य जी का आत्म बल सफल रहा। शैली की लोकप्रियता बढ़ी। आचार्य हिंदी, बांग्ला, और अंग्रेजी भाषा में पारंगत थे। उन्होंने जान स्टुवर्ट मिल की पुस्तक ' लिवर्टी ' का हिंदी में अनुवाद किया। जिसका नाम उन्होंने रखा 'स्वाधीनता '। उस उसका कि बहुत प्रशंसा हुई।
एजुकेशन - नाम पुस्तक जिसे हरवर्ट स्पंसर मैं अंग्रेजी में लिखा था उसका वार्ड करके रुपांतरित नाम ' शिक्षा 'शीर्षक दिया।
नागरी प्रचार सभा काशी में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी को विद्वानों द्वार 70 वर्ष की उम्र में अभिनंदन किया गया। हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने सन 1935 ई. में उन्हें साहित्य वाचस्पति उपाधि देकर अलंकृत किया। और नागरी प्रचारिणी सभा में उपस्थित विद्वान के बीच सन 1931 ई. मैं आचार्य श्री की उपाधि से विभूषित किया गया।
द्विवेदी जी की अनुदित ग्रंथ में - शिक्षा, मेघदूत, रघुवंश, बाल बोध, महाभारत, आत्म निवेदन, विज्ञान वार्ता, रत्नावली, कालिदास का कुमार संभव, सरोज और कीरातार्जुनीय हैं।
उन्होंने लगभग 81 ग्रंथों की रचना की है जैसे, काव्य मंजूषा, कालिदास की निरंकुशता, हिंदी भाषा की उत्पत्ति, गंगा लहरी, रितु तरांगिणी, कविता कलाप, देव स्तुति शतक, तरूनोपदेश, नाट्य शास्त्र, आदि उल्लेखनीय है।
बेकन विचार रत्नावली, हिंदी महाभारत, वेणी संहार आदि अनुदित ग्रंथ हैं।
द्विवेदी जी ने अपने विषयों पर लेखन का कार्य किया अलग-अलग विषय पर निबंध लिखे। आलोचना की क्षेत्र में कृतियों के गुण दोष का विवेचन खंडन के शास्त्र पद्धति को अपनाया। हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में पाठकों के ज्ञान वर्धन के लिए उन्होंने काम किया।
रीति काल के लेखन का एक तरह से विरोध किया। उनका मानना था कि उत्तेजना को तृप्त करने का केवल माध्यम बन जाए वह साहित्य अपने उद्देश्य से भटक जाता है। वह कहते थे कि श्रृंगार रस होने से ही रचनाएं अश्लील नहीं होती। श्रृंगार और अश्लीलता के भेद को स्पष्ट करने के पक्ष धर थे। उन्होंने कहा कि कालिदास श्रृंगारिक रचनाओं के रचयिता रहे उनके काव्य में बीच-बीच में वीर शांत और करुना का रस,रस प्रवाह श्रृंगार रस के भंवर से ऊपर उठ जाता है।
रीति काल के काव्य में श्रृंगार का जो रुप कविता में दिखाई देता है वह श्रृंगार कम अश्लील दर्शन अधिक होता है।
द्विवेदी जी के लेखन में स्त्री शिक्षा और स्त्री स्वाधीनता का नवजागरण करना मुख्य उद्देश्य था। नारियों की प्राचीन काल और वर्तमान काल में समाज में नारियों की दिशा दशा पर उन्होंने बल दिया है । उन्होंने लिखा है कि -
पढ़ने लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं, जिससे अनर्थ हो सके --- अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं। अनपढ़ और पढ़े लिखे दोनों से। ---- अतः स्त्रियों को अवश्य ही पढ़ाना चाहिए। ---- स्त्रियों को निरक्षण रखने का उपदेश देना । समाज के साथ अपराध करना है। जो समाज की उन्नति में बाधा डालता है।
आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी बहुत ही उच्च कोटि के दार्शनिक विद्वान लेखक और ज्योतिष के जानने वाले थे। उन्होंने पश्चिमी देशों में ज्ञान - विज्ञान के क्षेत्र में जो प्रगति हुई थी। उस प्रगति से भारत को परिचित कराने का प्रयत्न किया। नवीन बुद्धि वादी चेतना की ओर संकेत किया। उनका मानसिक छितिज बहुत विस्तृत और उच्च कोटि का था। उन्होंने लेखकों कवियों को शुद्ध तथा परिमार्जित भाषा लिखने की प्रेरणा दी साथ ही साथ हिंदी नव जागरण में उल्लेखनीय योगदान देकर साहित्य में चर्चा करके उनको प्रतिष्ठित किया।उन्होंने अंग्रेजी शासन की नीतियों से होने वाले दुष्प्रभाव का क्रमबद्ध तरीके से जानकारी प्रदान करने की चेष्टा की। अंग्रेज शासन की गलत नीतियों से सीखने की हिदायत भी दे दिया। अत्याचार, शोषण ,रंग भे द, जय श्री गलत नीति से जागृत रहने के लिए प्रेरित करने का कार्य करते रहे। साहित्य में गद्य निर्माता के रूप में प्रमुख रुप से विशिष्ट स्थान प्राप्त किया।
- सुख मंगल सिंह अवध निवासी
| 4:14 AM (2 hours ago) |
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भेजने वाले: Sukhmangal Singh <sukhmangal@gmail.com>
Date: मंगल, 21 सित॰ 2021, 14:54
Subject: "महावीर प्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा के धनी विद्वान "
To: Sukhmangal Sing
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Subject: "महावीर प्रसाद द्विवेदी बहुमुखी प्रतिभा के धनी विद्वान "
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