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Dr. Srimati Tara Singh
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मानव जीवन का परम लाभ?

 

मानव जीवन का परम लाभ?

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य एकोsवर्णो बहुधा शक्ति योगा 

द्व्नाननेकन्निहितार्थों दधाति| 

वि चैति  चांते विश्वमादौ स देव :

स नो बुदध्या शुभया सन्युनक्तु |

सृष्टि के आरंभ मेनम जो एक और निर्विशेष होकर भी अपनी शक्ति के द्वारा विना किसी प्रयोजन के ही नाना प्रकार के अनेकों वर्ण (विशेष रूप ) धारण करता है तथा अंत मेन भी जिसमें विश्व लीन हो जाता है वह प्रकाश स्वरूप परमात्मा हमें शुद्ध बुद्ध से संयुक्त करें |

ओभित्येतदक्षर्मिदँ सरवामिति 

ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है | 

यह अभिधेय (प्रतिपाद्य ) रूप जितना पदार्थ समूह है वह अपने अभिधान (प्रतिपादक ) से अभिन्न होने के कारण और सम्पूर्ण अभिधान भी ओंकार से अभिन्न होने के कारण यह सब कुछ ओंकार है | परब्रहम भी अभिधान अभिधेय (वाच्य-वाचक ) रूप उपाय के द्वारा ही जाना जाता है | इसलिए  वह भी ओंकार है | 

यह जो परापर अक्षर है ॐ है | उसका उपाख्यान बीआरएचएम की प्राप्ति का उपाय होने के कारण उसके समीयता से स्पस्ट कथन का नाम उपाख्यान है |

इह चेदवेदीदथ  सन्यमस्ति न चेदिहावे दीन्महती विनष्टि :|

इस श्रुति के अनुसार इस मानव जीवन का परम लाभ आत्मामृत की प्राप्ति ही है | 

इसलिये इसकी प्राप्ति ही हमारा प्रथम कर्तव्य है | भगवान से प्रार्थना है कि वे हमें उसकी प्राप्ति कि युज्ञता प्रदान करें | 

हमें उस अनुपम अमृत का पान कर अमर जीवन प्राप्त कर सकें एसी तीव्र आकांक्षा से हमें उससे लाभान्वित होने की योग्यता प्राप्त करनी चाहिए | 

मानव जीवन और आत्मा का अनुपम अमृत पान प्राप्त करने के लिए शरीर (देहस्थ )धारण करना है | इस शरीरस्थ देही के नष्ट हो जाने पर यानि इस देह से मुक्त हो जाने पर भला इस शरीर मेन क्या रह जाता है | अर्थात कुछ नहीं रहता यही वह ब्रह्म है | जिस आत्मा के चले जाने पर एक क्षण मे ही यह भूत और इंद्रियो का समुदायरूप सबका बलहीन विध्वस्त हो जाता है यानी नष्ट हो जाता है और वह शरीर भिन्न ही सिद्ध होती है | अर्थात जो वह था जो शरीर को गतिमान किए हुये था अब वह शरीर मे नहीं है |

न प्राणेन नापानेन मरत्यों जीवाति कश्चन 

इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुयाश्रितौ |

अर्थात कोई भी मानुष्य ण तो प्राण से जीवित रहता है और न अपान से ही जीवित रहता है अपितु वह तो जिसमें ये दोनों आश्रित हैं इस प्रकार वह किसी अन्य से ही जीवित रहता है | वह परम शक्ति क्या है वह कौन है यह खोज उपनिषद करता है |

यथाकर्म यहास्यकर्म  तहाथाकर्म 

यइर्यादृशम कर्मह जन्मनि कृतम तादृशेने त्येतत | 

अर्थात यथाकर्म तात्पर्य जिसका जो कर्म है यानि कि इस जन्म मे जिसने जो किया है उसके अधीन होकर ,यथा श्रुति अर्थात जिसने जैसा विज्ञान उपार्जित किया है उसके अनुरूप शरीर को ही प्राप्त होता है | मानव जन अपनी –अपनी बुद्धि के अनुसार पैदा हुआ करते है |

यथा प्रज्ञम ही संभवा : इति श्रुत्यन्तरात !

एसी एक दूसरी श्रुति से भी यही प्रमाणित होता है | 

योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वायदेहिन

स्थाणुमन्येsनुसन्यन्ति यथाकर्म यथाश्रतम |

यानि अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिये किसी योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्थावर – भाव को प्राप्त होते हैं |

अविद्यावान मूढ़ देहधारी शरीर धारण करने के लिये वीर्य रूप बीज संयुक्त होकर योनि –योनिद्वार को प्राप्त होते हैं और वह किसी योनि में प्रविष्ट हो जाते हैं | दूसरे अधम पुरुष मरण को प्राप्त होकर स्थाणु यानि वृक्षादी स्थावर – भाव का अनुगमन कराते हैं | जो करमानुसार कर्म – अज्ञान- ज्ञान से प्रभावित होते हैं |

अंधम तम: प्रविशान्ति ये sसंभूतिमयासते

ततो भूय डूव ते तमो य उ  सम्भूत्याकरता:|

जो लोग असम्भूति ( अब्यक्त प्रकृति ) की उपासनाक कराते हैं वही घोर अंधकार मे प्रवेशब्करते हैं जो संभूति (कार्यब्रहम ) मेन रात रहता है वे लोग और अंधकार में प्रवेश करता है |

अर्थात उत्पन्न होने का नाम संभूति है वह जिस कारी का धर्म है उसे संभूति कहते हैं | अव्याकृत नाम वाली अज्ञानता –अज्ञानात्मिक अविद्या की जो कामना और कर्म की बीज है | का जो लोग उपासना करते हैं वे अज्ञानता में प्रवेश कराते हैं |

यानी हिरण्यगर्भ संभूति नामक कारी ब्रह्म में रत लोग उससे भी गहरे अंधकार का भागी होते हैं |     

  यं त्वं ज्ञातु मिच्छस्यात्मा नम

जिस आत्मा को तुम जानना चाहते हो –

तं दुर्दर्शम गूढमनुप्रविष्ठम 

गुहाहितम गहूरेष्ठम पुराणम |

अध्यात्म योगाधिगमेन देवम 

मत्वा धीरों हर्षशोको जहाति |

उस कठिनता सी दीख पड़ने वाले ,गूढ स्थान में अनुप्रविष्ट ,बुद्धि में स्थित गहन स्थान में रहने वाले ,पुरातन देव को अध्यात्मयोग की प्राप्ति द्वारा जानकार धीर (बुद्धिमान ) पुरुष हर्ष –शोक को त्याग देता है |

तात्पर्य यह है कि चित्त को विषयों से हटाकर आत्मा में लगा देना अध्यात्मयोग है | उसकी प्राप्ति द्वारा जानकार धीर पुरुष हर्ष और शोक को अपने पास फटकने नहीं देता | उसमें उपकर्ष और अपकर्ष का अभाव हो जाता है क्योंकि आत्मा गूढ स्थान में अनुप्रविष्ट और बुद्धि में स्थित है | यदि कठिनता से अति सूक्ष्म होने के कारण पुरातन देव के दर्शन हो सके ,उसे दुर्दश कहते हैं |

इदानीम विददनुभवम दर्शयन्नुक्त मर्थम ढूढ़िकरोति !

विद्वान का अनुभव दिखाते हुये ! कि ईश्वरों के परम महान ईश्वर ,देवताओं के परमदेव ,पतियों के परमपति, अव्य क्तादि ,पर - अक्षर से पर ,भुवनों के ईश्वर ,स्तुतव परमात्मा को हम जानते हैं | 

-    सुख मंगल सिंह ,अवध निवासी  


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