" ऋणोद्धार!"
स्त्री - पुरुष के स्वाभाविक संयत,
सम्मेलन पुनीत विधान।
स्त्री से पुत्र की प्रयोजन के लिए,
उच्च कर्म पवित्र सिद्धांत !
विवाह बंधन होते पवित्र बंधन,
यही आर्य संस्कृति का मत।
हर यह समाज विवाह बंधन को,
भाभी प्रबंधन से ऐसा मत।
मधुर प्रभाव की गांठों - गाठों में,
मनुष्यता जकड़ी रहती है।
मानव हित निर्माण - कल्याण में,
सांस्कृतिक पलती बढ़ती है।
पाता उच्च लोग मनुष्य पुत्र पर,
कर्तव्य मार्ग पर रहें पुत्र सब।
ऋषि - मुनियों के मन भाती मां,
कीर्ति घूम जमीन लगाती जब।
पुत्र प्राप्ति से मिलता उत्तम लोक,
पौत्र से अनंत काल तक स्वर्ग!
सूर्य लोक मिलता प्रपौत्र प्राप्ति से,
पुत्र - पिता को बचाता नरक से!
उसी दिन शुद्ध हो जाता है पिता,
जिस दिन पुत्र जन्म ले लेता।
जन्में पुत्र रत्न का मुख देख पिता,
पितृ - ऋण से मुक्त हो जाता।
पुत्र हीन स्वर्ग नहीं- पुत्रवान पाता,
अनंत काल स्वर्ग में रहता।
' पुत्र ' संध्या का प्रतिपादन किया,
ब्रहमा जी ने खुद ही दिया।
ब्राह्मण ही निर्णय के हेतु युक्त हो,
मानव जन्म प्राप्त करता है।
तीनों ऋणों से मुक्त होने के लिए,
निम्नलिखित कर्म करता है।
संतान उत्पत्ति करके मुक्ती प्राप्त,
पितृ - ऋण से छूटता है।
ऋषि - ऋण से तब मुक्ति मिलती,
जब ब्रम्हचर्च धारण करता।
देव - ऋण से मुक्ति मिलती उनको,
यज्ञ होम कराता रहता है।
देव - ऋण चुकाने का होता है अर्थ,
सद अनुष्ठान और यज्ञ करें।
भूत - हित और लोक सेवा करने से,
मनुष्य को देव ऋण से मुक्ति!
ऋषि - ऋण मुक्ति के उपाय सुझाव,
सद शास्त्रों का पठन पाठन।
शास्त्रों का मन चिंतन करते रहना,
और विश्व हित में करें प्रचार!
पितृ - ऋण से उद्धार इक्षुक मानुष,
वंश वृद्धि की चाहत व्यव्हार!
मर्यादा - परंपरा पालन अनुमोदित,
शिष्ट जनों से करना अधिकार !
मानव समाज जहां प्रधान कर्तव्य,
जीवन भर इन्हें ही अपनाए।
इस दुनिया को छोड़ कर जब जावे,
अपने पीछे प्रतिनिधि लगावे।
जो व्यक्ति इन महत्वपूर्ण कार्य को,
अपने जीवन पर्यंत निभावे।
मानव जन्म जाति - हित निमित्त,
उत्तराधिकारिओ के लिए!
आत्मीयता अपनी दूसरों को देता,
जो मृत्यु बाद जीवित रहता।
मानव के हर कार्य में उसकी पत्नी-
बच्चे का हित निहित होती।
उसकी सत्ता का सभी प्रयोजन में,
बर्द्धमान- भविष्य जुड़ा रहता।
संतान उत्पत्ति का महत्वपूर्ण कार्य,
स्त्री - पुरुष संविधान से होता।
उसका संयोग कितना पुनीत कार्य,
भली-भांति समझ मंगल लेता।
विवाह बंधन में बंधे मनुष्य के जीवन,
यात्रा मात्र अपने लिए नहीं होती।
लोक मंगल समाज कल्याण के लिए,
मानवता की पगड़ी लिए जीता।।
- सुख मंगल सिंह
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