साहित्य में कर्मयोग दर्शन
- सुखमंगल सिंह
मानव जीवन में कर्मयोग की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कर्मयोगी, मनीषी, दार्शनिकों ने अपनी-अपनी अनुभूति का यथावत वर्णन साहित्य, शास्त्र में किया है यथा- चिन्ता की वृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। यथा- योगश्चित्तवृत्ति निरोधः ।'जब चित्त निरुद्ध हो जाता है, निरोध की स्थिति में हो जाता है तो द्रष्टा आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थान करती है। अपने को शुद्ध बुद्ध सच्चिदानन्द मानती है। यथा- तदा दुष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् ।वृत्ति माने परिवर्तनशील जो बदल रही हो। क्षण-क्षण में हमारी नित वृत्तियां परिवर्तित होती रहती हैं। परिवर्तनशील मनःस्थिति में उपनिषदों के अर्थ समझ में नहीं आ सकते।"हैं।'इसके लिए शांति पाठ आवश्यक है। शांतिपाठ के द्वारा अपने चित्त में शम की स्थिति हम लातेविश्वास मनुष्य को सिंह बना देता है.... कभी-कभी मुझे दिन में दो या तीन व्याख्यान देने पड़ते हैं। पूर्णमदः - वह पूर्ण है। अदः माने वह। पूर्णमिदं माने यह पूर्ण है। वह पूर्ण है, यह पूर्ण है। मानो कोई पूर्ण से अलग है और वह जो परोक्ष है, अज्ञात है उसको पूर्ण बता रहा है। फिर वही जो प्रत्यक्ष है जो यह जगत है इसको भी पूर्ण बता रहा है। पूर्ण में क्या वह, यह होता है।"ईसावास्योपनिषद् का यह जो शांति पाठ है, यह स्वयं वृहदारण्य उपनिषद का अंश है। यह इसकी दूसरी विशेषता है- ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।' ईशावास्योपनिषद् की महिमा इससे भी प्रमाणित होती है। वह पूर्ण है। पूर्ण क्या बहु होता है? पूर्ण को समझने के लिए उप पूर्ण पर वह का उध्यारोप कर दिया गया है। कारण रूपी ब्रह्म जो अज्ञान के कारण अपरोक्ष है, जो अज्ञान के कारण हमको प्रतीत नहीं होता, जो अज्ञान के कारण हमको अनुभूत नहीं होता, हमारा अनुभव नहीं बनता, उसको समझने के लिए कह दिया गया है कि वह पूर्ण है। वह यानी कारण रूपी ब्रह्म। वह जो अपरोक्ष है। निर्गुण, निराकार, निष्क्रिय वह ब्रह्म पूर्ण है। वह पूर्ण है।पूर्णमिदं और यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाला जगत भी पूर्ण है।भावार्थ- वह भीतर भी है, प्रतिरूप में है और इसके बाहर भी है। इसलिए हमको और अपूर्णता की यह भ्रांति होती है इस भ्रांति का ही निरसन करना है। इस भ्रांति का निरसन करना है। यही उपनिषद का कार्य है, यही उपनिषद करता है।पूर्णमिदं- यह पूर्ण है, यह टुकड़ा नहीं है- हेरत हेरत हे सखी, रहा कबीर हेराइ । बूंद समानी समुद में, सो कत हेरी जाई ।।
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यानी हम अंश हैं और हम समुद्र में समा गये अर्थात् ब्रह्म में समा गये।"
जिस दिन पक्का ज्ञान हो जायेगा, जिस दिन उसका अनुभव हमको हो जायेगा, उस दिन अपनी पूर्णता का अनुभव हम कर लेंगे उपलब्धि कर लेंगे-
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
तीन बार शान्ति क्यों? आध्यात्मिक तापों की शान्ति हो । आधिदैविक तापों की शान्ति हो । आधिभौतिक तापों की शान्ति हो।"
हमारे यहां अध्यात्म कहते हैं 'आत्मिन अधि' जो अपने भीतर है। आत्मिन अधि यानी अपने इस शरीर के जो भीतर है सब अध्याल है। इस शरीर के भीतर उत्तरोत्तर सूक्ष्म क्या क्या है? गीता में-
इन्द्रियाणि पराण्याहुः इन्द्रियेभयः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिः यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।
एवं बुद्धेः परं बुद्धवा, संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रु महावाहो, कामरूपं दुरासदम् ।।२
शरीर से सूक्ष्म इन्द्रियां, इन्द्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुद्धि, बुद्धि से भी सूक्ष्म है आत्मा । ये सब हमारे भीतर होने के कारण आध्यात्मिक हैं। इनकी वृत्तियां भी हमारे यहां आध्यात्मिक मानी जाती हैं। काम को भी, क्रोध को भी, लोभ को भी, उत्साह को भी, श्रद्धा भक्ति को भी हम आध्यात्मिक मानते हैं।
तुलसीदास ने कहा है-
दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज नहिं काहुहिं व्यापा ।।"
दैहिक माने आध्यात्मिक, दैविक माने आधिदैविक, भौतिक माने आधिभौतिक हैं।
विषय से कुछ हटकर हम यह स्पष्ट करने की धृष्टता कर रहे हैं- भारतीय दार्शनिकों को तो पुनर्जन्म स्वीकारने में परेशानी नहीं होती किंतु विज्ञान जगत् का स्वीकार करना ही भारतीय दर्शन की विजय होगी। विज्ञान की स्पष्ट धारणा है कि कभी भी कुछ पूर्णतः समाप्त नहीं होता। परिवर्तन हो जाता है तो क्या यह संभव नहीं की जीवन भी समाप्त न होकर परिवर्तित हो जाय। यह समस्त जीवन जगत तरंगों पर है। जीवन मनोभौतिक तरंगों का समानान्तरीकरण है। यह समानान्तरीकरण का ही जीवन है। इसका नियोजन मनुष्य की मानसिक या शारीरिक मृत्यु का कारण होता है।"
विज्ञान जगत भी इस बात को स्वीकार करता है कि जीवन तरंगात्मक है इ. सी. जी. भी इस बात का प्रमाण है। तरंग जीवन है सीधी रेखा मृत्यु की द्योतक है।
जब हम यह मानकर चलते हैं कि तरंगें कभी समाप्त नहीं होतीं तो यह मानना ही पड़ेगा कि मनुष्य की मृत्यु के पश्चात् उसकी मनस तरंगें ब्रह्माण्ड में ही विचरण करती रहती हैं और जब किसी भौतिक तरंग (शरीर) से उनका समानान्तरीकरण हो जाता है तो यह उस मनस् तरंग का पुनर्जन्म हुआ।" पुनर्जन्म की धारणा हमें ऋग्वेद से स्पष्टतः मिलती है।"
कर्म! मानव का महत्वपूर्ण योग धर्म है। कर्म के भारतीय दर्शन के कर्म सिद्धांत में तीन प्रकार दर्शाए गए हैं- संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण। अतीत में जो कर्म किये गये, वे खत्म नहीं होते, उनका प्रभाव ' जमा हो जाता है। ये कर्म ही संचित कर्म कहे गये हैं। संचित कर्म ऐसे कर्म हैं जिनका फल कभी मिलना |
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शुरू नहीं हुआ है। अतीतकालीन वे कर्म जिनका फल मिलना शुरू हो गया है, प्रारब्ध कर्म कहे जाते हैं, क्रियमाण कर्म वे हैं जो वर्तमान समय में किये जा रहे हैं, कालान्तर में ये ही कर्म संचित तथा प्रारब्ध का रूप धारण कर लेते हैं।"
कर्म का इतना अधिक महत्व है कि व्यक्ति का पुनर्जन्म का आधार भी कर्म ही होता है। व्यक्ति जिन माता-पिता, परिवार, समाज तथा समय में जन्म लेता है, वे सब उसके प्रारब्ध कर्मों के ही परिणाम होते हैं।* भारतीय मत के अनुसार वास्तव में देखा जाय तो मनुष्य स्वयं अपना भाग्य विधाता है।२० सृष्टि की उत्पत्ति तप और कर्म से मानी गयी है। इसमें भी तप की उत्पत्ति कर्म से मानी गई है। अतः कर्म सर्वोत्तम है। कर्म से ही तप और संसार की उत्पत्ति होती है।"
जहां कर्म है वहीं गति है। जहां गति हो, वहां जीवन है, वहां दुःखों का भी अभाव है। इसका अभिप्राय यह है कि जहां कर्म है वहां सुख है, जहां अकर्म है, वहां दुःख है। २२
कर्म फल के विषय में कहा गया है कि ईश्वरीय दूत कभी नहीं होते हैं। वे हमेशा सभी के पास खड़े रहते हैं। वे प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों को देखते हैं और तदनुसार उन्हें फल देते हैं। मनुष्य अपने अच्छे तथा बुरे कर्मों का फल भोगता है।"
यम मनुष्यों के कर्मों की मात्रा को ठीक नापकर तदनुसार फल देता है।
जो मनुष्य बुरे कर्म करता है उसे अपने कुकर्मों का दुष्परिणाम मिलता है, वह पापी होता है। अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है। इतना ही नहीं अपितु अच्छे कर्मों का अच्छा फल दूसरों पर भी पड़ता है। २६
कर्म दो प्रकार के होते है- कृत और अकृत किये हुए कर्म कृत हैं, जो कर्म नहीं किये गये हैं परंतु मन से जिसको सोचा गया है वे अकृत हैं। दोनों प्रकार के कर्मों का फल मिलता है।
कर्म करने में आलस्य ठीक नहीं। जो हो चुका है अतीत है, उससे चिपके रहने में कोई सार नहीं और जो आने वाला है आगामी भविष्य है, उसका सपना देखते रहना भी ठीक नहीं क्योंकि भविष्य का क्या ठिकाना? इसलिए आज पर ही भरोसा कर सामने वाले कर्म को सम्पादन करना बुद्धिमान व्यक्ति का कर्तव्य है। इसलिए शतपथ ब्राह्मण इसी वक्त कर्म करने का परामर्श देता है।
कुर्म में विश्वास रखने वाले एक प्राचीन मनीषी को अपने कर्म पर इतना भरोसा था कि वह कहता था- 'मेरे दाहिने हाथ में पुरुषार्थ है और बायें हाथ में सफलता रखी है। यथा-
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो में सत्य आहितः ।
योग के तीन प्रकार हैं यथा- १. ज्ञान योग, २. कर्म योग तथा ३. भक्ति योग ।
द्विविधा निष्ठा- १. सांख्य योग २. कर्मयोग
इसी प्रकार त्रिविध नरक द्वार है- १. काम २. क्रोध तथा ३. लोभ ।
त्रिविध ज्ञान द्वार हैं- १. श्रद्धा, २. तत्परता तथा ३. इंद्रिय संयम ।
भक्ति के चार महावाक्य- १. कृष्णस्तु भगवान् स्वयंम् २. मन्तः परतरं नान्यत्, ३. ब्रह्मणो ह प्रतिष्ठाहम्, ४. मामेकं शरणम् व्रज ।
द्विविधा भक्ति- १. अपरा- गौणो २. परा- रागानुगा ।
नवधा भक्ति- १. श्रवण २. कीर्तन ३. स्मरण, ४. पादसेवन ५. अर्चन, ६. वन्दन, ७. दास्य, |
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कर्म पिपाक प्रक्रिया अर्थात् कर्म एवं कर्म फल का चक्र अनन्त है। इस क्रिया में मनुष्य को अपने कर्म का फल अनिवार्य रूप से भोगना पड़ता है।"
कर्म पिपाक प्रक्रिया में कर्म के तीन भेद माने गये हैं- १. संचित कर्म २. प्रारब्ध कर्म ३. संचीयमान अथवा क्रियमाण कर्म।
कर्मों को तिलक जी ने कुछ इस प्रकार कहा है कि किसी मनुष्य के द्वारा इस क्षण तक किया गया जो कर्म है, चाहे वह कर्म इस जन्म में किया गया हो या पूर्व जन्म में, वह सब संचित कर्म कहा जाता है। इस संचित कर्म का दूसरा नाम 'अदृश्य' है। मीमांसकों की परिभाषा में इसे 'अपूर्ण' भी कहा गया है।
संचित कर्मों को एक साथ भोगना असम्भव है, कारण स्वर्ग और नर्कपद का भोग संचित कर्मों की देयता होती है।
क्रियमाण का तात्पर्य है कि वह कर्म जो अभी हो रहा हो अथवा जो अभी किया जा रहा है। संचित कर्म में से जितने कर्मों के फलों का भोगना पहले प्रारम्भ होता है उतने अंश को ही प्रारब्ध कर्म कहते हैं।
कर्म योग का प्रतिपादन योगदर्शन में हुआ है।
मनु ने शरीर, मन और वाणी से होने वाले पाप कर्मों की गणना कुछ इस प्रकार की है, अंशरूप से यहां वर्णन है-
अन्याय से दूसरों की चीजों की इच्छा, मन से दूसरों का बुरा चाहना, परलोक में विश्वास न करना मन से होने वाले पाप की श्रेणी में हैं।
कठोर वचन, असत्य भाषण, सब प्रकार की चुगली तथा अनावश्यक वाद-विवाद, वाणी से होने वाले पाप हैं।
दूसरों के धन का अपहरण, शास्त्र के विपरीत हिंसा, परस्त्रीगमन और अन्याय, यह शरीर से होने वाले पाप हैं।
शरीर के कर्म, दोषों या पाप कर्मों से मनुष्य वृक्ष आदि योनि में, वाणी के कर्मदोषों से- पक्षी और मृग की योनी में, मन आदि कर्म के दोषों से चाण्डाल आदि कुल में जन्म लेता है।
है ।
व्यक्ति शुभ कर्म से देवत्व, मिश्रित कर्म से मनुष्यत्व और अशुभ कर्मों से नीच योनि में जन्म लेता
इस प्रकार हमें कर्मवाद के सिद्धांत को अटल और अनिवार्य कहने में तनिक भी झिझक नहीं होनी चाहिए, प्रत्यक्ष हमने देखा है कि शुभ कर्मों का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अशुभ मिला है। आप भी अपने जीवन में देख सकते हैं।
महामुनि कपिल के माता देवहुति के भक्तियोग का मार्ग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये।" कहने पर श्रीभगवान ने कहा- माताजी साधकों के भाव के अनुसार भक्तियोग का अनेक प्रकार से प्रकाश होत है क्योंकि स्वभाव और गुणों के भेद से मनुष्यों के भाव में भी विभिन्नता आ जाती है।
जिस प्रकार गंगा का प्रवाह अखण्डरूप से समुद्र की ओर बहता रहता है उसी प्रकार मेरे गुणों |
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के श्रवण मात्र से मन की गति का तैलधारावत् अविच्छिन्न रूप से मुझ सर्वान्तर्यामी के प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम में निष्काम और अनन्य प्रेम होना यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण कहा गया है
योग में बाधक नौ विघ्न और पांच उपांतराय उपविघ्न होते हैं और इसी के साथ पांच क्लेश भी बाधक हैं- १. अविद्या (मिथ्याज्ञान) २. अस्मिता बुद्धि और इन्द्रियों में ऐक्य प्रतीति ३. रोग ४. द्वेष ५. अमिनिवेष (मृत्यु) के भय से जीवित रहने की तीव्र अभिलाषा।"
पार्वती के तप से प्रसन्न हो शिव वटु के रूप में उपस्थित हुए। उस समय पार्वती शिव के लिए तप करते करते निराश होकर अग्नि में जल जाना चाहती थीं कि वटु रूप में शिव ने उन्हें निवारित किया पार्वती प्रसन्न हो अपने घर गयीं माता-पिता ने उन्हें शुभाशीष दिया। यथा-
अहो तपस्ते किं भद्रे न बुद्धं किंचिदेवहि । *०
न दग्धोवहिना देहो न च प्राप्तो मनीषितः । *"
शीघ्रं पितुगृहं गच्छ तत्र प्रक्ष्यसि शंकरम् ।
ममाऽऽ शिषा स्वतपसां फलेन च सुदुर्लभम् ।।२
शिव शब्द कल्याण वाचक है। कल्याण शब्द मुक्ति का वाचक है। मुक्ति की प्राप्ति शिव से होती है अतः उन्हें शिव कहा जाता है यथा-
शिव कल्याण वचनं कल्याणं मुक्तिवाचकम् ।
यतस्तत् प्रभवेत्तेन स शिवः परिकीर्तितः ।। ३
भावार्थ- कल्याण शब्द में ऐहिक भाव भी सन्निहित है बताया गया है कि धन अथवा बन्धुओं के विच्छेद होने पर, शोक सागर में पड़ जाने पर शिव शब्द का उच्चारण करके मनुष्य सकल कल्याण प्राप्त कर लेता है। अतः शम्भु को शिव कहा गया है यथा-
विच्छेदे धनबन्धूनां निमग्न-शोक सागरे ।
शिवेति शब्द मुच्चार्य लभेत्सर्व शिवं नरः । । **
कर्मयोग में संलग्न जो बालक सदा सर्वदा रहता है तपों में सदा यत्न करता रहता है। बालक यतिः ! अर्थात् जो बालक तपों से सदा यत्न करता है और जो सभी कर्मों से संयत है वह ब्रह्मपुत्र यति प्रख्यात
हुआ।
श्री कृष्ण अर्जुन से कर्म करते समय बरती जाने वाली सावधानियों का प्रतिपादन करते हैं-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।। ४६
अर्थात् कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फल में कभी नहीं। ऐसा समझ कि फल है ही नहीं। फल की वासनावाला भी मत हो और कर्म करने में अश्रद्धा भी न हो। कवि कविता से प्रभु को प्रतिक्षण पास रखता है-
हृदय में तेरा वास रहे
रघुनाथ रहो तू साथ हमारे ।।
माँ का नित साथ रहे,
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रघुनाथ रहो तू साथ हमारे ।।
माँ से नित आश रहे,
रघुनाथ रहो तू साथ हमारे ।।
दरख्त समी रहे प्रांगण,
रघुनाथ रहो तू साथ हमारे ।।
सूर्य शौर्य लिए लालिमा,
भजन यजन नित होता रहे,
रघुनाथ रहो तू साथ हमारे ।।
हनुमत रक्षा करें सदा,
नियमबद्ध हम सदा रहें
रघुनाथ रहो तू साथ हमारे।।७
ग्यानहिं भगतिहिं अन्तर केता। सकल कहहु प्रभु कृपानिकेता ।।
योग का साहित्य में- ज्ञान निरालम्ब योग है कहा गया है। भक्ति सालम्ब योग है। यथा-
कहहिं संत मुनि वेद पुराना। नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना।।
भक्तियोग से मुक्ति प्राप्त होती है यथा-
अस विचारि जे मुनि विग्यानी ।
जाचहिं भगति सकल सुख खानी ।।
कारण मुक्ति को ही वेदान्त में सच्चिदानन्द स्वरूप माना है।
सर्वएते पुण्यलोका भवन्ति ब्रह्म से स्योऽमृतत्वमेति ।
अर्थात्- कर्मकाण्डी लोग पुण्य लोकों को प्राप्त होते हैं (जो क्षीण पाप हैं) तथा ब्रह्मनिष्ठ अमरत्व को प्राप्त होते हैं। स्वधर्मानुसार कर्म श्रीराम ने भी किया कि वशिष्ठ मुनि के आने पर आदर सत्कार कर मुनि का चरण धोकर चरणामृत लिये। स्व धर्म पर गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
जप तप नियम जोग निज धर्मा । श्रुति संभव नाना शुभकर्मा ।।
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन। जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन ।। "
स्वामी जी आगे लिखते है-
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरऊँ। तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ।
छूटी त्रिविधि ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अति बाढ़ी।। ५२
छान्दोग्य उपनिषद का भावार्थ है कि ब्रह्मज्ञान किसको देवें किसी दूसरे को नहीं बतावें यद्यपि आचार्य को यह समुद्र परिवेष्ठि और धन से पूर्ण सारी पृथ्वी दे (तो भी किसी दूसरे को इस विधा का उपदेश न करें) क्योंकि उससे (धन आदि) से यहीं बढ़कर है, यही बढ़कर है । ३
अहं दौ गृणते पूर्ण्यं वस्वहं ब्रह्मं कृणवं महं वर्धनम् ।
अहं भुवं यजमानस्य चोदिताऽयज्वनः साक्षि विश्वस्मिन्भरे । । १४
अर्थात् हे मनुष्यों! मैं सत्यभाषण रूप स्तुति करने वाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूँ मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करने हारा और मुझको वह वेद यथावत् कहता उससे सबके ज्ञान को
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बढ़ाता, मैं सत्पुरुष का प्रेरक यज्ञ करने हारे को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है उस सब कार्य की बनाने और धारण करने वाला हूँ। इसलिए तुम लोग मुझको छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो, मत जानो ।
साहित्यशास्त्र में गृहस्थ कर्म देखें यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है यथा- प्रथम माता मुक्तिमती पूजनीय है देवता, अर्थात् सन्तानों को तन मन धन से सेवा करके माता को प्रसन्न रखना, हिंसा अर्थात् ताड़ना कभी न करना। दूसरा पिता सत्कर्म देव! उसकी भी माता के समान सेवा करना। तीसरा आचार्य जो विष्ट
का देने वाला है उसकी तन मन धन से सेवा करना। चौथा अतिथि जो विधान धार्मिक, निष्कपटी, सबकी उन्नति चाहने वाला, जगत में भ्रमण करता हुआ, सत्य उपदेश से सबको सुखी करता है उसकी सेवा करें। पाचवाँ स्त्री के लिए पति और पुरुष के लिए स्वपत्नी पूजनीय है। यथा-
मा नो वधीः पितरं मोत मातरम्। (यजु.) आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणमच्छते ।। अतिथिर्गृहानु पच्छेत । अथर्व.
अचेत् प्राचेत् प्रियमेधासो अर्चत। (ऋग्वेद)
त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि। (तैत्तिरीयोपनिः)
कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते । (शतपथ प्रपाठ ५ ब्राह्म ७ कंडिका १०) मातृदेवो भव पितृदेवो भव अतिथि देवो भव। (तैत्तिरीयोप.)
पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा । पूज्या भूषयितव्यांच बहुकल्यानमीप्सुभिः । पूज्यो देववत्पतिः । (मनु. स्मृ.)
उपरोक्त मूर्तिमान देव जिनके संग से मनुष्यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्ति होने की प्रथम सीढ़ियाँ हैं इनकी सेवा न करके जो पाषाणादि मूर्ति पूजते हैं वे अतीव वेद विरोधी हैं।
कर्मयोग का अनुसरण करने वाले यज्ञ पूण्यादि द्वारा चंद्रलोक को प्राप्त होते हैं। जिन्हें आसक्ति और राग है उन्हें कभी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। अच्छे कर्मों के फल समाप्त होने पर वे नीच लोकों में प्रविष्ट होते हैं। कर्म अपने लिए किये जाते हैं परंतु कुछ महापुरुषों ने दूसरों की भलाई हेतु कर्म करते हैं इसीलिए कहा गया है 'परहित सरिस धर्म नहिं दूजा ।
कर्म, ज्ञान को, ज्ञान कर्म को जागृत करता है और ज्ञान तथा कर्मयोग की उपलब्धता में भक्तियोग प्रमुदित हो सत्य तत्व की खोजकर परमोत्कृष्ट भक्ति में निरूपित हो बोधरस का अनुभव हृदय को कराता है फिर प्रारब्ध पुण्य अवयव के संनिकटता से साधनोचि विचारक वन जगद्विख्यात हो जाता है। वह मानव अपने अन्तःकरण में स्थित सर्वभूतान्तर्यामी परमात्मा श्रीहरि का बार-बार स्तवन और चिंतन करते हुए पूजन करता है।
जिसके परम मंगलमय स्वरूप का दर्शन करने के लिए महात्मागण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और वन में जाकर अखण्ड भाव से ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं तथा अपने आत्मा को सबके हृदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते है वे ही मुनियों के सर्वस्व भगवान मेरे सहायक हैं वे ही मेरी गति हैं।६
कामायनी की आलोचना प्रक्रिया में देखें 'वर्तमान काल समय की
साहित्य में कर्मयोग दर्शन
साहित्य में कर्मयोग दर्शन
आज से मानवता की कीर्ति
अनिल भू जल में रहे न बन्द ।
आगे देखें कवि लिखता है-
हिंसा ही नहीं और भी कुछ
वह खोज रहा था मन अधीर ।
आधुनिक युग में प्रसाद की कामायनी में आनन्दवादी दर्शन आलोचकों के मध्य विवाद का विषय बना हुआ है। डा. प्रेमशंकर का विचार है कि प्रसाद का यह दर्शनसंसार से पलायन नहीं बल्कि उसमें प्रवृत्त होने का संदेश देता है यथा-- कामायनी का आनन्द ऋषि, साधक और वैरागी की सम्पत्ति नहीं है। कर्म से मानव उसकी प्राप्ति कर सकता है। वन में जाने की आवश्यकता नहीं है।
यहाँ व्यक्तित्व में कर्म और विचार का प्राधान्य है। मनु को आनन्द की अनुभूति कराना प्रसाद की कामायनी का मुख्य विषय है-
था एक हाथ में
वसुधा जीवन रस
कर्मकलश, सार लिये ।
दूसरा विचारों के नभ को,
था मधुर अभय अवलम्ब दिये ।। १०
कर्म-सर्ग में वे श्रद्धा से कहते हैं-
किन्तु सकल कृतियों की,
अपनी सीमा है हम ही तो,
पूरी हो कामना हमारी,
विफल प्रयास नहीं तो ।। "
यहाँ अपनी ही चिंता से मनुष्य का विकास सम्भव नहीं होता और कर्म पूरा नहीं होता इसलिए लिखते हैं-
औरों को हँसते देखो मनु
हँसो और सुख पाओ
अपने सुख को विस्तृत कर लो,
सबको सुखी बनाओ।।
अन्त में हम केवल इतना ही कहने की धृष्टता कह रहा हूँ कि आदि काल से वर्तमान समय तक में मनीषियों आचार्यों ने ही नहीं अपितु साहित्यकारों तक अपने अपने बौद्धिक क्षमता के अनुरूप प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप में जो कुछ दृष्टिगत किया। उसे वह पुरुष अपने क्रियमाण कर्म, अवस्था, स्थापन प्रकृति और प्रवृत्तिनुसार कर्म का संपादन करता है। मनीषियों ने कर्म को ईश्वर में समर्पण हेतु जहाँ बताया है वहीं कुछ मनीषियों एवं कुछ साहित्यकारों ने भी परमार्थ उपकार हेतु सभी के कल्याण के लिए कर्म, कर्मयोग को करने का मार्ग बताया है। सद्कर्म से सद्गति की प्राप्ति होती है, विश्वास में दृढ़ता का बोध होता है। शान्ति और समता का प्रादुर्भाव होता है। लोक कल्याण का भाव जागृत होता है।
साहित्य में कर्मयोग दर्शन
संदर्भ संकेत-
1. ज्ञान और कर्म, पृ. ३०/
२. वही, पृ. ३०।
३. वही, पृ. ३०/
४. वही, पृ. ३०।
५. वही, पृ. ३०। विवेकानन्द साहित्य, पृ. ३६६ ।
६.ज्ञान और कर्म २/३१/
७.वही।
८.वही।
9. कठोपनिषद ५/१।
10.ज्ञान और कर्म २/३३।
11.वही २/ ३४ ।
१२. गीता।
१३.ज्ञान और कर्म २ / ३४/
१४. मानस, २/३४ ज्ञान और कर्म ।
१५. आत्मा कर्म पुनर्जन्म और मोक्ष पृ. ८ । भूमिका लेखिका डा. मधुरिमा सिंह । १६. वही, पृ. 9 ।
17..वही, पृ. १०।
१८ . वही, पृ. १३।
19.शंकर भाष्य ३-२-४०। वही, पृ. १३।
२०. आत्मा कर्म और पुनर्जन्म और मोक्ष, पृ.१४ ।
२१.अथर्ववेद ११-८-६। वही, पृ. १४|
२२.वही ६-२३-२।
२३. वही ५-६-३।
२४. वही ६-२३-२।
२५. वही २-११-५।
२६. वही १६-१०-४।
२७. शतपथ ब्राह्मण २-३-११-२८।
२८.ऐतरेय ब्राह्मण ७-१५।
29.अथर्ववेद ५-२-८ ।
३०.योगः सिद्धांत एवं साधना, पृ. १२२-१२५
लेखक पं. हरिकृष्ण शास्त्री दातार ।
31.आत्मा कर्म पुनर्जन्म और मोक्ष, पृ. १०२
३२. गीतारहस्य तिलक, पृ. २८४। आत्मा कर्म पुनर्जन्म और मोक्ष पृ. २१/.
३३.
३४.
३५.
वहीं, पृ. १०२ ।
योग सिद्धांत एवं साधना, ले. पं. हरिकृष्ण शास्त्री दातार, पुत्र ७ ।
मनु. १२-२। वही, पृ. ११५।
३६. श्रीमद् भागवत श्लोक १-२, पृ. ३०। वहीं श्लोक ७ अंक २६, तृतीय स्कंद । वही ११-१२ पृ. ३० /
३७.
३८.
३६.
४०.
योग सिद्धांत एवं साधना पृ. ४६ ।
ब्रह्मवैवर्त ४१/४०/६५ नृ. १५२ एक
अध्ययन।
वही ४, १-४०-४६ ।
वही १-६-५०।
वही १-६-५, पृ. ३१४-३१५ एक अध्ययन।
४१.
४२.
वही ४, १-४०-५६ ।
४३.
४४.
४५.
४६.
४७.
४८.
वही, पृ. ३०२ ।
यथार्थ गीता पृ. ५, श्लोक ४७। स्वरचित ।
रामचरितमानस में
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