" साहित्यिक आलोचना की पद्धति"
बड़े से बड़ा रचनाकार अपनी बुद्धि और ज्ञान के अनुसार कला का सृजन करता है। साहित्य के सृजन में पूर्ण सृजन की कोशिश करता है। कुछ समय बीत जाने के बाद रचना की तुलनात्मक विशेष ताओं और प्र वृत्तियों को आधार में रखकर मनन अध्ययन और सृजन को ध्यान में रखते हुए सिद्धांतों पर साहित्य को सृजित
करने लगता है। इन्हीं कलात्मक ता और सिद्धांत पर समस्त कृतियों का
नियमन मूल्यांकन और उनकी सृजन प्रक्रिया के आधार पर नव सृजन करता का मार्गदर्शन करते रहते हैं।
सैद्धांतिक आलोचक में आलोचना के लिए लक्षित उद्देश्य और सिद्धांत होते हैं।
वे सिद्धांत रूढ़ और गतिशील भी होते हैं परंतु प्रवाह मान साहित्य के
जीवंत होता है। नित नूतन शक्ति के साथ साहित्य लेखन आकांक्षा और चिंतन सील साहित्य के सजग सर्जक
को तरह तरह की नई नई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। अनेक कठिनाइयों को पार करते हुए सृजन करता आगे बढ़ता है।
साहित्य में नवीन अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने के लिए साहित्यकार नए-नए द्वार खोलता है। सच कहा जाए तो आलोचक के समक्ष मात्र आलोचना करने का दायित्व ही नहीं होता है अपितु वह एक जटिल कार्य करता है।
साहित्य सिद्धांत गतिशील होते हैं जो साहित्य को नई दिशा प्रदान करते हैं।
साहित्यकार के मिले जुले तत्वों से निर्मित किया गया साहित्य जिसे समाज युग को आधार में रखकर निर्मित किया गया हो उसे स्थिर सिद्धांत ही नहीं समझाया सकता है!
और उसी आधार पर मूल्यांकन करना समुचित नहीं कहा जा सकता है।
पुराने लिखित साहित्य सिद्धांतों
को कालांतर में नवीन चिंतन और मनन कर नई दिशा देनी होती है। साथ ही साथ नए सृजशीलता को प्रेरित करने के नए सिद्धांत की स्थापना करनी होती है। सभी युगों की कृतियों को उसकी नवीन प्रविष्टि को नई प्रवृत्ति की समझ करने की आवश्यकता होती है। संपूर्ण कृतियों को यह कहीं कसौटी बार नहीं कशी जा सकती है।
स्थिर सिद्धांतों को आधार मानकर किया गया सृजन सौंदर्य और युग चेतना से परिपूर्ण साहित्य होगा ऐसा नहीं कह सकते हैं। ऐसे साहित्य आडंबर युक्त साहित्य होकर रह जाते हैं।
वह साहित्य पर्याप्त प्रेरणा प्रस्तुत करने में कम सक्षम होते हैं जो बने बनाए प्राचीन मार्ग पर चलते रहते हैं और वह बाहर संकलन को बटोर ने में आंख मू द कर चल पड़ते हैं।
रुण सिद्धांतों के आधार पर शाहिद सृजन करने वाले कृतिका र जिस समय नए साहित्य की व्याख्या - मूल्यांकन करने के लिए अपने कर्तव्यों का पालन करने में खुद को उतारते हैं तो वह अपने अनुकूल साहित्य को न मिलने पर उसकी व्याख्या में अवमूल्यन करने लग जाते हैं।
नए साहित्य में नई छबियां और कलात्मक अभिव्यक्ति की समझ से परे होने के कारण आलोचक उस साहित्य को लेकर आनियंत्रित और व्यर्थ समझने लगते हैं और अपने रची रचाई सिद्धांतों के माप के आधार पर साहित्य के को घसीट कर घिसते हैं।
साहित्य आलोचना में शास्त्रीय आलोचना पूर्णतया प्राचीन भारतीय साहित्य शास्त्र पर आधारित होती है।
युग और काल के अनुसार इसमें समय समय पर कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। परंतु मूल सिद्धांत से अलग नहीं होते हैं। आलू सुनाएं तुलनात्मक और व्याख्या आत्मक शैली में भी की जाती है। प्रसिद्ध शास्त्री आलोच कों मैं लाला भगवान दीन दिवेदी युग कर रहे उन्होंने टीका और भूमिका के अतिरिक्त तुलनात्मक आलोचना भी लिखते रहे।
किसी भी देश के लिए परंपरा का पूर्ण रुप से त्याग कर लेना उचित नहीं होता है। परंपरा विहीन देश कालांतर में दिशा बदल कर चल देता है। समाज और जातियों का विकास सांस्कृतिक परंपराओं के पुनुत्थान नवीनीकरण और नवीन परंपराओं की स्थापना द्वारा ही होता है। विद्वानों का मानना है कि प्राचीन जातीय गौरव के मन मोह में प्राचीन रूढ़ियों से चिपकी रहती है।
विकास की प्रतियोगिता से बचने और आत्म शुद्धि करने के लिए द्विवेदी युग के बाद ' हिंदी आलोचना पद्धत शास्त्रीय पद्धत को छोड़कर सांस्कृतिक अंतरावलंबन पर आधारित
नवीन समस्यात्मक पंथ पर बढ़ने लगी'। इसी के साथ हिंदी साहित्य के अध्यापन का काज प्रारंभ होने के साथ यह आवश्यक प्रतीत हुई। विविध विश्वविद्यालय से संबद्ध छात्रों ने एम ए पढ़कर निकलने के बाद मेधावी विद्यार्थियों ने उत्साह भरते हुए आलोचना समग्र लिखने की दिशा में कदम बढ़ाया। प्रारंभ में जो आलोचनात्मक साहित्य निर्मित किया गया यह समन्वयात्मक ही था। बाद में समन्वय की भावना से अधिक स्वच्छंद और नवीनता की ओर बढ़ती गई। इस युग में दो सर्वश्रेष्ठ आलोचक डॉक्टर श्यामसुंदर दास और रामचंद्र शुक्ल का नाम समंवात्मक मत समीक्षा के प्रवर्तक और नियामक माने जाते हैं।
व्यवहारिक आलोचना पद्धति तुलनात्मक समीक्षा में एक भाषा या भिन्न-भिन्न भाषाओं केधूम कब यू के का बे की तुलना और उसके गुण दोष का निर्णायक ढंग से विवेचन किया जाता था। परंतु इस सनमिष्रनात्मक समन्वय पद्धत की सैद्धांतिक आलोचना में दो भा षा या दो सांस्कृतिक परंपराओं में प्रचलित साहित्य सिद्धांतों की तुलना और समीक्षा कर दिया जाता है।
साहित्य के आलोचना की संमिश्र नात्मक समन्वय की पद्धति आगे चलकर मात्र संकलनात्मक न रहकर विवेचात्मक और निर्णय करने वाली हो गई।
संश्लेशनात्मक समन्वय पद्धति - इसे समक्षा समन्वय सिद्धांतों का दूसरा ग्रुप माना जाता है।जिसमें पाश्चात्य और भारतीय साहित्य सिद्धांतों को पूर्ण रूप से आत्मसात करके गंभीर मनन और निरीक्षण द्वारा हिंदी का अपना निजी समीक्षा शास्त्र निर्मित किया गया है। इस को पाश्चात्य साहित्य का अनुकरण अथवा भारती साहित्य की व्याख्या करने वाली नहीं कह सकते हैं। साहित्य का मूल्य निर्धारण भी लोक मर्यादा या लोकनी ति ही कही जाती है। लोकगीत, लोग धर्म, लोक मंगल,आनंद मंगल की साधना व्यवस्था आदि अनेक नाम और प्रसंग द्वारा सामाजिक अथवा मर्यादित नैतिकता के प्रश्न को बार-बार उठाता है। अखिल विश्व की भाषाओं में आलोचना पद्धत की विशेष आवश्यकता होती है। साहित्य शास्त्र के मूल्यांकन में आलोचक का महत्व पूर्ण स्थान है। आलोचक का परम धर्म होता है जी वह पक्षपात रहित सतप्रतिशत साहित्य की आलोचना करें। सृजन करता का गुण दोष के आधार पर किया गया आलोचना साहित्य जगत को खुशहाल बनाने में मदद नहीं करने वाला मार्ग है।
(सा हि. सा. का वृ. इतिहास)
- सुख मंगल सिंह
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