''सुख - दुःख आते जाते"
संकट का दौड़ पड़े ना किसी पर,
सुख - दुःख आते जाते हैं!
जब जीवन में अवसाद घेर लेते,
संबंधी भी घबराते हैं।
निज स्वार्थ जब सिर चढ़ बोले,
घर - घर कलह कराता है।
माना नीद को पर लग जाता,
बैठे- बैठे भोजन आता है।
बातें अपनी मनवाने के लिए,
जानो जीवन भर जाता है।
घर मुहल्ला रूठा रूठा सा,
अपने में मन मद मस्त है।
जैसे कुछ अपने पास नहीं,
जी अन्दर - अन्दर घबराता है।
कभी - कभी में में पल आता,
कौन पाप हमको खाता है।
भूत प्रेत भव बंधन चाव चढ़े,
अच्छत - चन्दन बढ़ जाता है।
मन नव झिलमिल रोशनी से
काया झंकृत कर जाती है।
शोक युक्त निर्जन नव पथ पर,
खिलकर विकल हंसी आती है।
रजनी किसी कोने छुप कर बैठी,
मधुर वाणी लुट जाती है।
संकट का दौड़ पड़े ना किसी पर,
शीतल प्राण बल खाता है।
कपटी व्याकुल आलिंगन में,
जीवन की चपला जाती है।
आशा कोमलता तंतु दिखे,
नारी अपनी कह जाती है।
वह नीड़ बना छुट जाएगा,
व्याकुल भीड़ बता जाती है।
- सुखमंगल सिंह, अवध निवासी
संकट का दौड़ पड़े ना किसी पर,
सुख - दुःख आते जाते हैं!
जब जीवन में अवसाद घेर लेते,
संबंधी भी घबराते हैं।
निज स्वार्थ जब सिर चढ़ बोले,
घर - घर कलह कराता है।
माना नीद को पर लग जाता,
बैठे- बैठे भोजन आता है।
बातें अपनी मनवाने के लिए,
जानो जीवन भर जाता है।
घर मुहल्ला रूठा रूठा सा,
अपने में मन मद मस्त है।
जैसे कुछ अपने पास नहीं,
जी अन्दर - अन्दर घबराता है।
कभी - कभी में में पल आता,
कौन पाप हमको खाता है।
भूत प्रेत भव बंधन चाव चढ़े,
अच्छत - चन्दन बढ़ जाता है।
मन नव झिलमिल रोशनी से
काया झंकृत कर जाती है।
शोक युक्त निर्जन नव पथ पर,
खिलकर विकल हंसी आती है।
रजनी किसी कोने छुप कर बैठी,
मधुर वाणी लुट जाती है।
संकट का दौड़ पड़े ना किसी पर,
शीतल प्राण बल खाता है।
कपटी व्याकुल आलिंगन में,
जीवन की चपला जाती है।
आशा कोमलता तंतु दिखे,
नारी अपनी कह जाती है।
वह नीड़ बना छुट जाएगा,
व्याकुल भीड़ बता जाती है।
- सुखमंगल सिंह, अवध निवासी
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