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"सूखी क्यारी- प्यासे पौधे"

 

Sukhmangal Singh 





"सूखी क्यारी- प्यासे पौधे"


जिस क्यारी  में रहती थी रौनक - अभिलाषा,
आज उसी क्यारी में फैला क्यों सन्नाटा।
क्यारी सूखी - पौधे प्यासे टूटी आशा,
घात लगा कर भौरा गढ़ते परिभाषा।।

जहां बेला और चमेली के फूल सदा खिलते।
फिर खिलाएगी प्यारी माली की यही आशा।
सूरज की किरणों सा जहां चांद - चमकता,
वहीं महक रहे ख्वाबों के अब धूल किसके।।

अंधियारों के आंगन में झूले पड़ते,
मंद- मंद ,गंध - सुगंध मनमोहक होते।
आस - पास बालाएं नृत्य किया करतीं,
मौसम चल अपने का साथ मिल कर करते।।

कौमार के सोए अरमान गान किया करते,
सेक्टर का सेनापति मन हुआ करता।
पुरवइया के झुमके से ताप कम हो जाता,
साधक का महूरत सारा पूर्ण हो जाता है।।

बारिश और ठंड के बीच ठिठुरन होती,
मेघों की फुहिया से आंगन गीले होते।
सुदूर वर्ती क्षेत्र में पवन पंख डुलाते,
वादों की भरपाई जहां मौसम करता।।

कोई नहीं अपराधी केवल जय जो होता,
गैर इरादतन मसला केवल बांचा जाता।
या ची और अधिवक्ता बस फैसला लिखते,
असली फैसले अब तक याची - अधि वक्ता करते।।

उन क्यारियों के फूल जाने क्यों नहीं उगते,
विविध तरह के फूल खिलते थे जो पहले।
सूखी जारी प्यासे पौधे टूट रही सब आशा,
उसी मरुस्थल को सब ने देखा फूटी अभिलाषा।।

- सुख मंगल सिंह


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