Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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गँवार

 

सुनो लड़की। बहुत हो चुका घुट -घुट कर अँधेरे में रोना
आँसुओं से तन मन भिगोना
चलो उतर दो चेहरे से यह तथाकथित आदर्शों का रंगरोगन

 

ये वापस नहीं ला सकते तुम्हारे देह की सुंदरता
चेहरे की मोहकता ,तुम्हारी आँखों की मादकता
तुम्हारे यौवन की अल्हड़ता

 

ये कभी लौटा नहीं पाएंगे तुम्हारे जीवन के अनगिनत पल
जिनमे तुम खिलखिलाकर हँसना चाहती थीं
तितलियों के पीछे भागना चाहती थी ,बाहें फैला झूम-झूम नाचना चाहती थी

 

ये भर देंगे तुम्हे अनगिनत जटिलताओं से
तुम्हारी आत्मा पर लाद देंगे शुचिता का बोझ
तुम्हारे होठों पर जड़ देंगे संकोच की साँकल
तुम्हारी आँखों पर बाँध देंगे लाज का आवरण

 


अंततः
लहूलुहान होने को ढकेल देंगे बौराई भीड़ में
भीड़ नोचेगी ,खसोटेगी ,लूटेगी
फिर मन नहीं भरा तो लेगी अग्निपरीक्षा
बचो लड़की एक और वैदेही बनने से

 

देखो न इस सजे -धजे कफ़न बंधे शवों को
जो कभी तुम्हारी तरह ही सजीव थे
अब इन्हे फूंको या फेंक आओ किसी नदी -नाले
फ़र्क नहीं पड़ता

 

समझो इनके और अपने बीच के अंतर को
शव नहीं हो तुम ,तुम्हे फ़र्क पड़ता है
सपनो के टूटने से ,इच्छांओं के दरकने से

 

सुनो। समेट लो अपने जीवन की आँखों में
कुछ मासूम ,सुन्दर,चंचल सपने
कि जीना है तुम्हे मर जाने से पहले

 

वह जगा रही है बरसों से ,अपने भीतर की डरी -सहमी लड़की को
पर वह सुनती ही नहीं ,ख़ामोशी ओढ़े बैठी है
बचपन में कभी उसे' गाय 'कहा था पिता ने
और तभी से निभा रही है वह अपने गऊपने को
वह तनिक न बदली पर पिता बदल गए
अब वे उसे गाय नहीं गवाँर कहते हैं।

 

 

 

सुमन सिंह

 

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