Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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शोभा क्षण

 

फ़ूलों  से लद गए दिशा क्षण

भरता     अंबर     गुम्जन,

पुलकों में हँस उठा सहज–मन

निर्झर      करते    गायन !

 

अवचेतन  में   लीन  पुरातन,

स्वप्न वृष्टि  अब करता नूतन,

तन्मय हुआ अहं युग युग का

बाँहों    में    बँध    चेतन !

 

यह क्या भावी का संवेदन

या देवों का मौन निमंत्रण !

देह प्राण के पुलिन डुबाकर

बहता   अंतर     यौवन !

 

धरा शिखर का रे यह मधुवन

भू  मन अहरह  करता क्रंदन –

मृणमय पलकों पर फ़िर उतरे

यह   शाश्वत   शोभा   क्षण !

 

आओ हे, यह  निभृत  प्रीति मग,

धरो ध्वनित पग – चिह्नों पर पग,

अश्रुत  पद   चापों  से   गुंजित

आज   धरणि   का     प्रांगण !

रजत  घंटियाँ  बजतीं  छन छन,

स्वर्निम  पायल झंकृत  झन झन,

स्वप्न  मांस के  इन  चरणों पर

करो     प्राण   मन     अर्पण !

 

पद गति से शोभा पड़ती झर,

पग छबि उठती भावों से भर,

सृजन नृत्य रत रे कवि अंतर

सुन   नुपुर  ध्वनि   गोपन !

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