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कुवार की धूप

 

संवेदनात्मक यथार्थ अन्तर्मन को छूता है सुशील ‘हसरत’ नरेलवी के काव्य संग्रह ‘कुवार की धूप’ की कविताओं में
पुस्तक: ‘कुवार की धूप’ । कवि: सुशील ‘हसरत’ नरेलवी । प्रकाशक: सतलुज प्रकाशन, एस0 सी0 एफ0 267, द्वितीय तल, सैक्टर-16, पंचकूला, हरियाणा। पृष्ठ: 120-मूल्य: 150/- रुपये।
‘कुवार की घूप’ सुप्रसिद्ध कवि, कथाकार, ग़ज़लकार और समीक्षक सुशील ‘हसरत’ नरेलवी का प्रथम कविता संग्रह है। अब तक प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर की गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों के मंच से पढ़ी जाने वाली उन की कविताएं और ग़ज़लें श्रोताओं को मंत्रमुग्घ करती रही हैं। उसी क्रम में उनके इस प्रथम कविता संग्रह का साहित्य जगत में भरपूर स्वागत होगा, इस में संदेह नहीं हैं। ग्रामीण परिवेश में जन्में और संघर्षाें में पले नरेलवी के इस काव्य संग्रह की छोटी-बड़ी 63 कविताओं में भी संघर्ष की दुंदभि है, प्रकृति की व्यापकता है, सकारात्मक दृष्टिकोण की बुलन्दियों को छूती और कहीं-कहीं संगीतात्मक लय और गति के रस से ओत-प्रोत हैं ये कविताएं। उन की अपनी भाषा में - ‘‘यॅँू तो मैं बचपन से ही ज़िन्दगी की कर्कश लय पर थिरकता आया हँू। हालात जो भी, जैसे भी रहे हों मगर सदैव संघर्ष मेरी नियति रहे हैं।’’
शायद इन्हीं संघर्षाें की वज़ह से उन की कविताओं में संकल्प, आस्था और विश्वास की अनूठी झलक है। पृष्ठ-28 पर ‘‘उड़ते-उड़ते’ कविता की बहुत ही ख़ूबसूरत पंक्तियाँ इस की गवाह हैं। कवितांश-‘‘ .....लेकिन, उड़ना ज़ारी है/हाॅँ, इसी क्रम में/लहूलुहान होकर भी/दिनोंदिन/मज़बूत हो रहे हैं/उसके पंख/यह जो/उसके पाॅँव में/एक अदृश्य रस्सी है/देखना/एक दिन/इसे तोड़कर/वह हो जाएगा उन्मुक्त/और पा लेगा/अपनी आकाशगंगा/उड़ते-उड़ते/देखना/एक दिन/उड़ते-उड़ते।’’
इसी आशा और उम्मीद से भरी अन्य कविताएं है, ‘उजास’, ‘एक दिन...’। कवि जीवन के प्रत्येक क्षण को एक उजली किरण और थिरकती आशा से सजाये रखना चाहता है जो उस की सृजनात्मक सोच का प्रतीक है।
माँ के स्नेह को दर्शाती और उन की ममता की चाश्नी से लबालब भरी दो कविताएं, ‘अनायास ही-पृष्ठ 19’ और ‘लकीरें-पृष्ठ 105’ अन्तर्मन को कहीं गहरे तक छू जाती हैं। ‘अनायास ही’ कविता की ये पंक्तियाँ देखिए:-‘‘ वह चूल्हे में लकड़ियों को/आग की लपटों के/सुपूर्द कर रही थी/और बीच-बीच में/बच्चे को/आग से/बचाने का प्रयास भी/जो बार-बार/उसकी पीठ पर चढ़ता/तो कभी गोदी में/आने की ज़िद करता।’’
एक तरह से उनकी यह पहली कविता नमन स्वरूप माँ को समर्पित है। ग्रामीण आँचल में ‘दादी’ एक अन्यन्त सम्मानीय पात्र है। इस सम्बन्ध में पृष्ठ 47-48 पर कविता ‘कहती थी दादी’ एक बहुत उत्कृष्ट कविता है। बड़ी भावुक, मन को रोमांचित करने वाली और कहीं बहुत भीतर तक एक टीस उन्पन्न करने वाली। इन पंक्तियों में भावुकता का अतिरेक देखिये:- ‘‘ठीक कहती थी, दादी/‘‘बेटा/मैं न रहकर भी/रहॅूँगी/इस घर के/कण-कण में/गाॅँव के/जन-जन में/और अपने/लाडले के मन में।’’
ग्रामीण परिवेश से परिपूर्ण कविताओं को इस संग्रह में सम्मिलित कर कवि ने यह आभास दिलाया है कि जिस माटी में उसने जन्म लिया, जिस में खेल कर वह बड़ा हुआ, उसकी महक वह अभी तक अपने अन्तस में संजोए हुये है। अपने प्राक्कथन में भी उन्होंने स्पष्ट किया है - ‘‘ग्रामीण संस्कृति, संस्कार व मूल्यों के इर्द-गिर्द विचरता मैं बचपन से ही अपने आप को हमेशा जड़ों से जुड़ा हुआ महसूस करता हूँ।’’ पृश्ठ 49 पर प्रकाशित ‘गाँव’ कविता इस का बहुत ही सुन्दर उदाहरण है। इस में उस गाँव का वर्णन है जो वर्षाें पूर्व अपनी रंग-बिरंगी संस्कृति में ओत-प्रोत सही मानी में गाँव था - ‘‘चैपाल.....कुआँ....मुँडेर....गिट्टी खेलना....चाचा, ताऊ, बापू का बतियाना....सुबह-सुबह चिड़ियों का चहकना....नटखट बालाओं का मधुर गीत....सब का सब पीछे छूट गया.... काश ! सब दोबारा लौट आए....।’’
‘उत्सव’ कविता पृष्ठ 31 में भी ग्रामीण आँचल से जुड़े शब्दों जैसे हाली...डली...फाल...ल्हासी... का प्रयोग बहुत अच्छे ढ़ंग से किया गया है। ग्राम्य जीवन में रंगी इन पंक्तियों की नृत्य करती शैली को देखिए:- ‘‘.....पल्लू से/पसीना पोंछती/लू की लय पर/थिरकती/पगडण्डियों को/नापती/बिन रुके/पहुॅँचती है खेत में/हाली के पास....।’’
पक्षियों के माध्यम से मनुष्य को सीख देती दो कविताएं, ‘गुटरगूँ...गुटरगूँ’-पृश्ठ 52 और ‘लौटते समय’-पृष्ठ 106 भी पाठक का ध्यान आकर्षित करती हैं। कविता ‘लौटते समय’ की ये पंक्तियाँ क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं:- ‘‘.....हम मनुष्य भी/क्या कभी/ चहक पाते हैं/पक्षियों की तरह।’’ यह कविता
सचमुच मनुष्य की ‘मार्डन’ जीवन-शैली और कुत्सित सोच पर करारी चोट है। इसके साथ ही जिहाद पर लिखी कविता ‘टप-टपाटप’-पृष्ठ 60, ‘ठण्डियाते रिश्ते’-पृष्ठ 63, ‘नैतिकता’-पृष्ठ 81, ‘नपंुसक’-पृष्ठ 79, ‘सृजन’-पृष्ठ 114, ‘पेपर-सोप’-पृष्ठ 84 में दिए भाव भी कवि की परिपक्व सोच के परिचायक हैं। कविता ‘पेपर सोप’ में बेटी का ख़ूबसूरत चित्रण देखिये:- ‘‘.....बेटी/सिर्फ़/बेटी नहीं होती/बेटी कभी-कभी/माँ भी होती है।’’
प्रत्येक कवि, लेखक, उपन्यासकार, नाटककार अथवा कहानीकार समकालीन समाज की विसंगतियों, विडम्बनाओं और विकृतियों पर अपनी पैनी निगाह रखते हुए एक नये सृजन का आह्वान करता रहा है और वैसा परिवर्तन सुशील ‘हसरत’ नरेलवी की कविताओं में खुलकर सामने आया है। इस काव्य संग्रह में विभिन्न भावों/विषयों जैसे स्नेह, ममता, नैतिकता, न्याय, शोषण, संवेदना, प्रतिबद्धता, सरलता, नारी विमर्श, सृजन, परिवर्तन, आतंकवाद, आदि का सशक्त चित्रण हुआ है। कविता ‘नैतिकता’-पृश्ठ 81 में कवि अपनी आवाज़ इस तरह से बुलन्द करता है:- ‘‘...नैतिकता के अभाव में/संस्कार पीछे छूट रहे हैं/इसी कारण आज/वृद्धाश्रम फल-फूल रहे हैं।’’

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कवि हर परिस्थिति में सत्य का पक्षधर रहना चाहता है। इस पुस्तक की अन्तिम कविता ‘हे कविवर’ में उसने आत्मविश्वास से परिपूर्ण अन्तिम पंक्तियाँ कुछ इस तरह से प्रस्तुत की हैं:- ‘‘.....मैं/सच्चे कवि का धर्म निभाऊँगा/बेशक/सत्य को/सत्य ही बतलाऊँगा।’’
प्रेम प्राकृतिक है, शाश्वत है और मानस-अंतस में एक नई स्फूर्ति और उत्साह जागृत करता है। प्रेम की इस ऊर्जा से कवि भली-भान्ति परिचित है। शायद इसी लिए उनकी अनेक कविताओं मंें यह सुन्दर रूप में प्रतिबिम्बित हुआ है। कार्तिक पूर्णिमा और चाँद के माध्यम से पृष्ठ 23 पर प्रकाशित कविता ‘अन्तराल’ में मन को छूती ये पंक्तियाँ पढ़ने योग्य हैं:- ‘‘न मिला करो तुम/कार्तिक पूर्णिमा की/चाँदनी की तरह...।’’
ऐसे ही कविता ‘जब मैं...’-पृष्ठ 54 शाश्वत प्रेम का सुन्दर उदाहरण है। ‘रिक्शावाले’-पृष्ठ 104 में निर्धनता की पीड़ा, ‘मगर कब तक’-पृष्ठ 94 में जर्जर व्यवस्था पर करारी चोट और उसमें नया परिवर्तन लाने का स्वप्न, यही भाव आगे पृष्ठ 102 पर प्रकाशित कविता ‘ये सभ्य जन’ में भी है। ‘जी चाहता है लौट चलूँ’-पृष्ठ 56 की कविता में अतीत की सुगन्ध से सराबोर वक़्त को याद करता तृषित मन, वो गलियाँ, पगडण्डियाँ, वो रिश्तों की ख़ुशबू, वो अपनत्व और ममत्व में डूबी और एक अनौखी आत्मीयता से भरी दुनिया.....जी चाहता है एक बार फिर लौटने को वहाँ...पर काश....ऐसा हो पाता। सचमुच पढ़ते-पढ़ते एक टीस उठती है और मन आज की निष्ठुरता का रंग देख कर उदास हो जाता है।
अन्त में ‘कुवार की धूप’-पृश्ठ 46 पर इस काव्य संग्रह के मध्य मंे एक नगीने सी जड़ी कविता है और उस का प्रमाण हैं ये पंक्तियाँ:- ‘‘.....फिर/जाने कौन दिशा से आ/एक आँचल का साया/ढाँप लेता है/मेरे तन-मन को/और दे जाता है/मुझे एहसास/गुनगनी कुवार की धूप का।’’
बेशक कवि सुशील ‘हसरत’ नरेलवी का यह पहला काव्य संग्रह है परन्तु जिस प्रकार की परिपक्वता, सकारात्मक दुष्टिकोण, सृजन की भावना, विडम्बनाओं और विकृतियों के प्रति आक्रोश, अनूठा शब्द-चयन और भावनात्मक शैली की छटा हर कविता में मिलती है, उसे देखते हुए यह कदापि नहीं लगता कि यह उनका प्रथम काव्य-संग्रह है, सचमुच भविष्य में उन से साहित्य जगत को बहुत आशायें हैं। मेरी उन्हें हार्दिक बधाई और शुभ आशीष।

 

 

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